स्पर्श की ख्वाहिश को मुकम्मल हो जाने दे

शब्द-शब्द उलझ जाने दे
कविता-कहानी से बहल जाने दे

रौशन रहेगा अक्षरों में लौ
एक गीत को गज़ल हो जाने दे

शाखों पर रुत आयेंगी और जायेंगी
मेघों को दरख्तो पर बरस जाने दे

राग और विराग का नाद बिखरा है यहाँ
सूरो को तालो के साथ सज जाने दे

सांस उल्झी हुई है धडकनों में रात-दिन
स्पर्श की ख्वाहिश को मुकम्मल हो जाने दे !!

कैसे छुपा ले

करीब से गुजरती हवाओ से
कैसे कह दूँ कि
तेरी खुशबू छुपा ले

माना रात गहरी है
अंधेरो से कैसे कह दूँ कि
जुगनू छुपा ले

आसमान पर सितारे सजे है
चाँदनी से कैसे कह दूँ कि
चाँद छुपा ले

तू शहर में मशहूर बहुत है
पर गलियों से कैसे कह दूँ कि
तुझे छुपा ले
  
गुलशन में खुशबू है तेरे इक
फूल के दम से
धडकनो को कैसे कह दूँ कि
दिल को छुपा ले !!

उनके चेहरे पर सपने

आज भीड है हर जगह
और उनके चेहरे पर सपने
जेबे तलाशती हुई
पर उसमे सिर्फ बचे
ईंट पत्थर

हाशिये से बाहर लोग
अब बस भीड का हिस्सा है
बदहवास सांसो की जमीन पर
सपने में सिर्फ भूख है
और उनके जलते पेट को  
एक पूरी नींद मय्यसर नही
कि ख्वाब में भी पूरा चाँद सा थाली मिले

आंख और
उनके सपनों के बीच जब
उनकी कुतर दिये गये जेबें आ जाती है
तो सूरज जल उठता है
और धरती पीली हो जाती है

तब कुर्सियाँ आसमान से टंग़ी
हवा में ईंधन छोडती नजर आती है
फूँकते हुये गरीबी
उसपर बैठी
दो जोडी गिद्ध की आंखे नजर आती है
कुछ तो गडबड है !!

दर्द उंगलियों से रिसता है

रेत उंगलियो से
वक्त की तरह फिसल गया 
एहसास बंधे रह गये थे
मुठ्ठियो मे
भूख उंगलियों से रिसने लगा था
तब मन बेबस
आनाथ पडा रह गया था कही

शहर अजनबी और सौ धोखे
फूल कांटो के बीच भी
खुशबू का साथ नही छोडा कभी
इंसानी फितरत में
गुलाब कहा था गेंहू के पीछे
उंगलियाँ कटती रही 
वक्त की पटरियो पर

उगाई थी उसने हरी दूबे
रस्मो से बंधी जमीन
सूखाग्रस्त और बंजर मिला था
जगह जगह से
हिरने कस्तुरी के लिये नही बल्कि
दूब के लिये तडपती थी उन दिनों 

राते बैठी रहती थी
मुंडेर पर बैठे काग की तरह
सितारे सजे तो उजाले हो
और सुबह के शबनमी गोद में
कदम थिरके और चमन महके

वक्त के नाखुन बडे हो गये थे 
खराश जिस्म पर
भूख से बढने लगी थी
सौ मन प्यार भी
कचरे के हिसाब में था 
जिसमे सडता रहा मासूमियत

तुम्हें नही पता कि
दहलीज और दीवार के बीच
जो कुछ अनसूना और अनकहा है
बस मासूमियत है
जिनकी सौ कुर्बानियाँ होती है
बेमतलब
कटती गायें ही है बस
इनके बीच

होश भी नींद का दामन थाम ले
पर जिंदगी मय्यसर ना होगी
क्योकि ख्वाब की खेती पर 
अफीम उगता है 
जीते वही है माँ
जो धनवान है !!     

माचान पर सोयी नींद गौरैंया थी


आंखो में सिहरता समन्दर
गोद में लहरे खौफ खाये बैठी रही
आन्ने दो आन्ने की बात नही थी
अब हजार में भी नही भरता था पेट

मचान वही बनता जिसके नीचे लहलहाते खेत होते
संतोष अमीरी में उगे तो मुश्किल क्या
पर गरीबी में
अंगीठी की आग को जलते छोड दे तो
राख होने तक जलेगी जाहिर है

शहर था जिसके करवट में समन्दर सोता हुआ
समय रेलगाडी सा पटरियो पर चलता
सुबह और रात के बीच
सैलाब सी भीड में जुनून सवार 
जेबे टटोलती हुई हाथे
पर खाली
कश लेता हुआ वक्त
जिसे सेहत की कोई फिक्र ना थी

कदभर पर आती स्टेशनें और
सांस सिटी सी आवाज करती हुई
देखकर लोग सावाधान होते जाते
कतार में
लम्बी होती जिंदगी में रफ्तार धीमी
ऊब और घुटन से रास्ते नापे जाते

शहर की खासियत थी कि
तस्वीर सोने की फ्रेम में जडी जाती 
पर चित्र कब और किस तरह पिघलकर टपक जाता
दीवारों को कानो कान पता ना चलता
चित्रकार तलाश करता हुआ दिखता
पर लोग उसे अव्यक्त करार कर देते

एहसासों का समन्दर वही डुबता नजर आया 
जहाँ सिरहाने पर सुरज उगता था
चाँदनी की सफेद आंचल पर तारे सुकून से सोते थे रातो में
शहर था जहाँ सबकुछ बडा हो जाता
एक के बाद एक

नींद मचान पर सोयी गौरैया थी
जिसकी सुबह जल्दी होती
और ख्वाब छोटी !!

चल कही और चले

गमों से पार चले
ए हवा
चल कही और चले

उल्झी सांसो की
गुंथियों की जाल से
पार चले
ए हवा
चल कही और चले

बंजर भुमि की कोख में
लगी आग से
कही पार चले
ए हवा
चल कही और चले

निकल चली है
कई रस्मो-रवायते ऐसी की
शुल जिगर के पार चले
ए हवा
चल कही और चले 

मुद्दतो से वे छींटते रहे है 
बारुद यहाँ वहाँ
फटने से पार चले
ए हवा
चल  कही और चले

हमने भी इक बनाई है
रौशन चमन जहाँ में
ए हवा
चल उसी के आस-पास चले !!

तंत्रिका तंत्र और ख्वाब

हाथ नींद के अंदर से
मानो खिंच लाया हो सपना
और बांट रहा है उसे
जरुरतमंदो में

एक भोर आंखो से होकर गुजरता हुआ 
ग्राह्य तंतुओ से अलग एक
आसमान से दूर डुबता समंदर के बीचोबीच
संधिस्थल सा मै और तुम
थोडा खाली जगह है उन्हे अभी भरना बाकि है

उगती घासो पर सम्वेदनाये अभी ग्रह्य है
रात को सियार नही खाये तो
नींद और मुर्गियाँ बची रहेंगी और
अंडो को सोने के भाव बेचेंगे तब

सम्वेदी तंतुओ को तलाश है
तुम्हारे दिन जैसे अक्षरो का
जिनसे ट्पकते हुये दर्द
मेरुदण्ड को खाये जा रही है
बचाना सम्भव हो तो
मस्तिक के सुरक्षित जगह को बचाओ

उसने सिखायी थी
नाक आंख और कान के संरचना तंत्र को
पर बाकी लोगो को यह नही पता था कि
प्यार की कोई संरचना तंत्र नही होती

जाल थी दुनिया सभी उल्झे हुये थे
तंत्रिका तंत्र की तंतुओ  की तरह
पर अभी भी कुछ लोग सपनो के तलाश में थे
जबकि फ्रायड ने यह बता दिया था कि
जिस्म के गांठो में मन भी उल्झा हुआ है
पर यह क्या हो रहा है !!

मंगल काका भुलने लगे है अब

तीन जोडी आंखे
एकल परिवार की तस्वीर
सहेजे हुये
आंखो में आसमान और
उसके रंगो की भरमार 
वक्त की अग्निकुंड में हवन होता सपना
एक तितली अनेक तितलियाँ
डाल डाल पात पात

आंखे लाल पीली शर्मीली
खौफ के रंग गहराता
लुढकता पुतलियों पर
माँ बाप विवश जमीन पर
सूरज को उगाते हुये
जलाते हुये अपने हाथ

खेतों से उडाते हुयें पंक्षी
भरते जाते है पेट
कोयल कन्धो पर बेसुध गाती
कोई मंगल गीत पर
गेन्हूँ की बालियों का रंग उडता जाता

बनाते कुँआ कल बहन आयेगी
भूखी प्यासी और भर भर आंख पियेगी
गौरैयो का जख्म
आओ कुछ राह जोडते है
मंगल काका पगडंडियो को
अब भुलने लगे है!!

धूप से बनी परछाई वाली छाँव थी अब

अंतहीन इंतजार में
सांस लेता हुआ 
पिंजडे में बंद पंक्षी 
छूट चुके लम्हों का
गिरवी पडा है  अब

अपमानित जिंदगी जीता हुआ
गये पहर के बुझे चिराग सा
पानीहारिन की फुटी मटकी से
जगी प्यास सी
रही जिंदगी उसकी

शब्दों की अन्नत पीडा पर
बरसते रहे बर्फ के गोले 
और तपिश गिरती रही  
कविता की जिस्म पर

उनसे बंधी डोर बडी रेश्मि थी 
जो आंखो को
आठ-आठ आंसू देते खुशी के
अंतस से आती आवाज में
नूर पेशानी की बडी ही रुहानी थी 

शीतल हवा रही एक एक अक्षर
पर 
रिश्तो और जिस्म पर
यकीन न था शब्दों को
इसतरह वह दूर रही दोनों से
और साकार होना था उसे
काठ की मुर्तियों में

धूप से बनी परछाई वाली
छाँव थी अब
जो करीब उतनी ही थी जितनी की दूर
और साथ साथ !!

चिराग जला जाती है ढेहरी पर

उडते पंछियो से
टोह मिलती रही
संदेश की चिठ्ठियाँ
कई  बार लिखी
अक्षरों का सँवारना नही हुआ
घुलते रहे अश्को में

परिंदों के परो से आती खुश्बू
तेरे देश का संदेश देती रही
शाम ढले
समंदर की सुरमई एहसास में
गिनती में बिखरते रहे चाँद तारे
सजती रही रातें पर
बदहवास आंखो में

जंगली हवायें टीस पैदा करती रही
तेरे शहर का दूर होना तब
आंखो में किरचियाँ घोलने लगती  

पर घोंसलो में सोये पंछियों के
चेहरे की सुकून
चिराग जला जाती है ढेहरी पर !!

तिलिस्म को करीब देख

गमों से पार हो
कश्ती
जला के दीप
करीब देख

अंधेरा हो घना
तो सुबह के साथ
सूरज को 
करीब देख

मचलते अरमान को 
गर गले लगाया तूने
तो दरिया को
करीब देख

हो सके तो लौट जा
आशियाने में
वरना आग को
करीब देख

जमीन और आसमान
मिलेंगे जरुर पर
उससे पहले
समंदर को
करीब देख

तेरी लेखनी में
वो दम है कि
छूते हुये आसमान को
करीब देख

वो है रहन्नुमा
कि तू बेफिक्र हो
साहिल को
करीब देख

माना मैंने आज की
शब्द है जादू तेरे
पर नादान दिल
तिलिस्म को
करीब देख !!

अय नदी

गमों से पार हो
अय नदी

जीवन में धार हो
अय नदी

गुजर जाये गर मझधार हो
अय नदी

बन जा सुर ताल
अय नदी

कलकल हो सांसे
अय नदी

गरीबी हो पार
अय नदी

शियासत तू डुबा
अय नदी

बन जा तारण हार
अय नदी

जंगल हो आर पार
अय नदी

पृथ्वी की तू श्रृन्गार
अय नदी

सदियों की गवाह तू
अय नदी

चढे परतों को तू धो
अय नदी

सूखी जमीनें नम कर
अय नदी

मानवियता हो संग संग
अय नदी

सपाट कर गमों के पहाड
अय नदी

वक्त का तू आईना बन
अय नदी

तानाशाहो को दिखा तू
अक्स
अय नदी !!

एक प्लेट जलेबी में मिठास इश्क सा

जाल है दुनिया,
और भटकन में सुलगता तन और मन
भुलभुलैया जैसी ऊँगलियो की 
उलझन में हर एक एहसास
सांस की अंतिम विदाई जैसा कुछ

आंखे डरी सी
पुतलियाँ छुपी बैठी और सहमी हुई
वे आते है
गर्म सलाखो को दिखाते हुये
सिसकियाँ जब तेज़ होती है
और टकराती है उनके मशीनी सीने से

घाघ है वे
दिखा रहे है हाथी दांत
आप उनके बातो में ना आये
वे अपने झोले का पुरा ख्याल रखते है
जिसमे भरी हुई है सोनपरियो के पंख
और मोल ले लेंगे आपके ईमान
छप रही है रंगीन भाव आजकल
जो जहर है आपके बच्चो के लिये

कलेजे में पत्थर भरते है और आग उगलते भी 
वे जगाते नही सुलाते है घर आंगन
उनके प्राण जिहादी बन
एलान में गोली फुंकते और रौंदते
दौडते भागते इंसान
खुन की प्यास उनकी ऐसी
समुंद्र लांघती हुई  बंदुको से

नंगी हकीकत से थककर
धरती की हरी घासे पीली हो गई
माँ के आंखो की झुर्रियो में परेशानियाँ दबी रही
वह जहाज के न डुबने वाले तरकीबो से मनुहार करती रही
पर समन्दर की अपनी खास सीमा है माँ
जो तू नही समझती जिसमे अमीर लोगो की फालतू चीजे
गरीब सीमाओ पर बहते रहे है
तेरी आह नही जला सकती उन्हे
क्योंकि उनके कुर्सी के नीचे घास है

तुम्हारे रोने और सोने के बीच में
एक सूरज उगता है
लोग बेच देना चाहते है उसे
पर उन्हे यह नही पता कि
गर्म पिघलते लावा को
आखिर किस टोकडे में रखकर बेंचेगे
माना उसे बेंच भी दे वे ,
तो जलते सूरज को रखेंगे किसके माथे

जगह जगह पर है भूखों के टीले
वे आलाव है रुक रुककर फुटती चिंगारियों की
तपने लगे है नंगे हाथ
जश्न है पर औरत के हाथ अभी तक खाली
सुरमई शाम उतरती है और
दाव खेलती है दुर्योधन के चौसर पर
पर किशन नही देते लाज की पट्टी अब
सबकुछ खुल रहा है एक शुरु की तरह से

वे समझते रहे कि ख्वाहिश
एक प्लेट जलेबी है जिसका मिठास इश्क सा है
वे ख्वाब को हथेली पर रख
नरम धूप में उगाना चाहते थे
जिसकी पवित्रता में डुबने की चाहत लिये
मरते आ रहे थे हमसब सदियो से

सांस की तीव्रता पर ख्वाब की गहराई
नींद से भी छोटी है !!!

सिफर हो गई थी दुनिया

सिफर था
जिसपर करवट ली उसनें
देखती रही कि
जमीन और आसमान
कही एक जगह पर
डूब गये थे 

मौसमों के फेर बदल नें
जमीन को गहरा 
और आकाश को
और ऊँचा कर गया था 

क्षितिज के किसी कोनें में
सांस ले रही करवट
देख रही थी
पिछ्ले कई दिनों की
कोशिशों के बाद
सूरज ने आंखे खोंली थी
साहिल पर 
हिमगिरि के माथें को चुमतें हुये

पर बदलाव हर जगह
जारी था सौंरमंडल में
ग्रहों की साजिश थी
प्रकाशगति को बाधित करनें की
हम सब विस्थापित हो रहें थें
सिफर हो गई थी दुनिया 
ग्रहतंत्रों के जाल में  !!

कैनवास पर फैला आसमान

छाँव में बैठी
एक नन्ही सी जान 
छू लेना चहती है
कैंनवास पर फैले
लम्बे चौडें आसमान को

ब्रुश से बिखेरते हुये 
कुछ जमीनी रंगों को  
और समेटना चाँद-तारो को
नन्हें हाथो से

जिद्द को गले से लगाये बैठी है कि 
पूरा आसमान चाहिये     
या उस तक पहुंच जाने की
एक उडान बस
गहरे और हल्के पेंसिल से
बनाती हुई कई शेड्स
चमकते सूरज का

रंगना चाहती है
उन तितलियों को भी
जिन्हें नही मिला है रंग
कुदरत से
और वे दिन के उजाले में नही उडती

उडना भी 
पंक्षियो के बीच उन्मुक्त हो
गहरे आसमान की गहराई में 
माप लेना
जमीन और आसमान के बीच की
खालीपन को चंद रंगों से

उतारना कुछ रंग आसमान से भी
जो जमीन से गायब है अब
उन चेहरों को सजाना भी
जिन्हे बचपन ने बेरंग कर दिया था  !!

शहर भी ना ......

शहर के नुक्कड पर लगे
पोस्टर की तरह जर्द हो चला है वो
पर शाख से गिरा नही अभी तक
अरसा कुछ सरक गया है
ठहरा है कई मौसमों के बीच 
पहचान भी नही बदलता 

रुत आती है और जाती है
उसे अपने गलियों ,चौराहों तथा चौराहो पर
चिपके पोस्टरो की तरह ही चिपका देखती है हरदम
हलांकि कई जगहो पर पोस्टरो को
परिंदो ने चोंच मारकर फाड दी है 
बेचारे टंगे हुये है फटेहाल
और शहर की उस नुक्कड का पहचान बने खडे 
या वे खडे है या उनमे शहर खडा है
किसी भी तरह से देखा जा सकता है

उसकी चौराहों से
सटी गलियाँ है और उनमें बहते नाले
शहर की पहचान के साथ ही बहते है 
वे भर गये है प्लास्टिक के महिन थैलियो से

पर फिर भी वे शहर के
उसी गली के नाम से बहते है 
ऐसा कहा जा सकता है कि
शहर नही छुटता उन गलियो का, चौराहो का और
नुक्कड पर टंगे पोस्टरो का
या गलियों में बहते नालों का

सभी के सभी अपने जगह पर वैसे ही  है
और पहचान है
उन कुनबों का जिनका शहर से बाहर जाना
वक्त का तकाजा रहा  

जर्द और सर्द
सभी मौसमो में साथ खडा रहा है 
उनके होने के एहसास के साथ
लौटने का इंतजार में  टिके हुये 
और नही बदलता अपना पता वह
खत के आने के इंताजार में
शहर भी ना !!!



तू जिस्म नही रूह है

तू रूह है
तस्वुर की खाक
तो जिस्म है

पौ फटने के वक्त
सूरज का आसमान  पर
उगने से पहले
पंक्षियों के कलरव के बीच 
तेरा हो जाना
तू जिस्म नही रूह है

चाँद का चाँदनी से
मिलने के ठीक
पहले के वक्त में
सितारों के बीच 
तेरा हो जाना
तू जिस्म नही रूह है

खुब खुब भींगना
मेध के बरसने के ठीक
पहले के वक्त में
बादलों से झांकना
तेरा हो जाना
तू जिस्म नही रूह है

आग लगने से
पहले की चिंगारी तू
और खाक होने से पहले
तेरा बस हो जाना
तू जिस्म नही रूह है

तुफान के उठने से
ठीक पहले के वक्त में
हल्की और मधूर ब्यार से
सिहरन का पैदा होना
और तबाह होने के पहले
बस तेरा हो जाना
तू जिस्म नही रूह है

डुबने से पहले
उठते भँवर में
चक्कर खाने के बीच
बस तेरा हो जाना
तू जिस्म नही रूह है

आनाथ कदमों की सिसकियाँ

धुंध के अंदर है
सबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा

टटोलते हुये
खुद को सम्भालते हुये 
अनाथ कदमों की
सिसकियाँ नही थमती

अजनबीपन
एहसास से भरा
हर एक सांस
खत्म होती हुई
 
सुबहें डुबती हुई
सूरज
उगाये थे कभी
हथेलियों पर
बडे आरमान से

प्यास
अंधेरे में चलते हुयें 
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!

जंगल को शायद कभी बचाया जा सकेगा

जडें जल रही है उन जंगलो की
जहाँ हिंसक जानवर नही रहते 
जीवन वैसे ही उगता है वहाँ जैसा बोया गया है
बडी निर्ममता से काटे जा रहे है जंगलो को
और जलने तक छोडा भी

वक्त गाडी की पहियों पर सवार चौतरफा 
थकान से रगों में लहू ठंडी
बढते रफ्तार में ठहराव को विस्तार नही मिला 
और भागते हुये जीवन में
सपना आकाश से लटकता हुआ एक फल और 
पकने का इंतजार सबको रहा है अबतक

किसी गाँव के बगीचे से आती खुशबू और
चिमनी के धूँये में मजदूरो की जलती आंत से
आती बू से आइने धूँधलाने लगे है
वक्त के साथ मिट्टी भी जमीन छोडने  लगी है 
और ठिठूरती सर्दी में गरीबी का पलता सपना कि
सुदूर गाँव से उठने वाला आग
थोडा गर्मी पैदा करेगी
तब कुछ दिन ठीक ठीक बितेंगा 
और गाँवों में हिरण और मोर भी आयेंगे
खुब खुब ईद और दिवाली होगा

पर वो आग जो बुझता ही नही
ग्लेशियरो के पिघलने जाने से
जलन में पैदा राख से आंधी फैलने का दबाव
मौसमों पर बढता जा रहा है 
कुर्सियाँ अपनी जगह पर खुब सुरक्षित है
जमीनी हकीकत से दूर
लहलहाती घासों पर बैठी हुई
और उनकी नींद गहरी   

चलते हुये लोगो में
चेहरे पर विवशता और आंखों में
गहराई लिये हुये भाव ऐसे बैठे है कि
तंत्रो की तंत्रिकाओ में
तंतुओ से बेबसी दौड रही है
और निराशा गतिशील तंतुओ पर सवार हो
सम्प्रेषित कर रही है खौफ और डर 
तलाश भी रही है उम्मीद
पर जिसके जल जाने का अंदेशा निरंतर बना हुआ है
तमाम अश्वासनों के बावजूद 

जंगल को शायद
कभी बचाया जा सकेगा !!

तू बहता रहा हर कही

कौन कहता है कि
तुझे याद नही 
पंक्षियो को उडाना हैं खेतो में
मेढो से लगकर
रोकना है पानी के उन धारो को
जो पिता के खोदी जमीन से बहती थी    
 
प्यास उपजती थी
खेतों में उनदिनों
और अन्न मेहनत जैसा था  
पर आज सुखता जाता है
कुँआ भी हर जगह
तुम भागते तांगो के पीछे
छूटते शहर और गाँव के निशानों पर
लिखते रहे चने जैसा कुछ
गरीबी की भूख मिटती रही  
 
अंतरिक्ष में घुमते पिंड खिसकते रहे
और जगह भी बदलते रहे
उनके बदलाव के कारणों को
जानने के वास्ते तू
बैठा कुछ गिनता रहा

वक्त की मार से
पत्तियाँ गिरती रही शाखो से 
रुहें उडती रही
और स्याही बन 
फैलती रही पन्नों पर
अक्षरें नम मिलती रही  

तेरी खिंची चित्रों की जिस्म से
लिपटी रही लरियाँ यादों की  
वक्त की बेरुखी से
दफन होती रही गहरे
बांझ पृथ्वी के कोख में

तेरे अश्क
मिठे पानी के झील बनते रहे
शीतल करते रहे पसीजते हथेलियों को
जब भी दोपहर उमस खाती
तब रात डुबती रही
चाँदनी बनती रही

तू बहता रहा हर कही
पर देख तो सही !! 

वह बेटी नही ,माँ की ममता है

वह गंगा है
जो फुटकर
अपनी शीतलता का एहसास कराती
एक मासूम कली

जन्म लेने और
मरने से पहले
बोल पडी 

मत रोको
पहचानो उसे
बहने दो
कोई श्रोत है वह

सुखते दरख्तो में
ठूँठ शाखो पर
कोंपलों को तो आने दो
तपते जिंदगी को छाँव दो
ममता की मुरत को
आने तो दो !!!

तपते रेगीस्तान में परछाई

सांस भी कटते रहे 
टुकडा टूकडा
वजूद से
रुह की परछाई
इक धुँआ सा   
जिसपर पैर चलने लगते थे
बेतहाशा

थकती  नही 
लौटती आंखे
रख देती थी उम्मीद
अधूंरें ख्वाब का
कही किसी पहाडी के
कोख में  

सुफेद चादर पर
चंद अल्फाज़ बिखेरे पडे रहे
सदियों की भटकन 
फूलो की खुशबूओ में बंद रही

धूप है
उम्मीद है
किरणों सी तेरी बाते
भटकन है
तू कही नही  मिलता
स्पर्श में
पर
तू आग हैं
और मोक्ष !!

माँ की तरह रोती रही

बारिश ने खुब डुबोया आसमान
डूबते घरों के बीच से
आती चीखें
तिनकें से सहारा मांगने जैसा
ठूंठ पर बैठा परिंदा गवाह बना

भूखे पेट और नंगें बदन
छोटे बच्चों के बहती नाक पर
भिंनभिंनाती मख्खियाँ
और माँ का फटा आंचल
धरती के सीने पर
विचित्रतायें थी कई जगह पसरी हुई

डूबतें गाँवों में
परम्पराओं को सूखते देखती रही
भूख की आग पर
मिटती रही सम्वेदनायें
मसलन
जब पानी
पानी की तरह नही बहता था
साबुन नसलों को धोते हुयें
भूख के पतीले में
एक एक आग
जल जाती अन्न पर

और वह बैठी कोनें में
माँ की तरह रोती रही
जब भी किसी गाँव और शहर को
डुबते और जलतें देखती
गिडगिडाती  रहन्नुमाओं के आगे
बचा लो
गंगा और सीता को डुबनें से
दे दो भोजन जिंदगी को
दो जून की

वह भी जी ले
कथाओं और परम्पराओं की तरह
सुंदर हो ले
हिमालय से निकलकर
पवित्र भी
कोयल की कूक सी
थोडा मधूर भी !! 

छोटे रोशनदानों से रौशनी तेज़ और धारदार पहुंचती थी उनदिनों

सूना था देखा भी नही
बडे घरो में बिन खिडकियों के
छोटे रोशनदानवाले कमरों में
उडती चिडियों की कहानी

उनका निकलना
कितना कठिन था उनदिनों
दुनिया तो ऐसी ही थी
सुंदर हमेशा से

सूरज तो आसानी से पहुंच जाता
अपने नुकीली और धारदार रौशनी के साथ
छोटे रोशनदानो से होकर
प्रकाश पर नाचते थे
हवा में घुलें धूल भी
बडे आसानी से दिखते थे

सांस कैसी होती थी उनकी
कल्पना में
पंख टुटने जैसा दिखता था
नानी दादी की कहानियों से
वे पेट भरती थी
उर्जा उन्ही कहानियों से उन्हे मिलती थी
और दिनभर उडती

चक्की चुल्हें बर्तनों के बीच
खनकने जैसा हंसती थी वे
उनका खनखनाना दरवाजे तक नही पहुंचता था 
हाथियों के चित्रवाले दरवाजें होते थे उनदिनों

बडी काबिल थी वे
अपनी थकान पंखो पर
नही डालती थी
उनके अश्क हवा में ही सुख जाते

उडान में संचार का माध्यम
रोशनदान होता बाहरी परिंदो से
देश दुनिया की खबरें मिलती उन्हें
और वे आवाज़ से पहचानती थी उन्हें
उन बुत चिडियों की
आसमान बहुत सुनहरा था 

पर जितना आसमान खुला है आज
कही ज्यादा गहराई में धंस गया है 
पंख बोझिल है आज चिडियों की
उडने से पहले ही बिखर जाती है
बडें और जालीदार आसमान के बीच
आज सूरज दिखता है पहुंचता नही
मद्धम रौशनी के बीच
धुंधले चित्रो में
फंसे परिंदो की कहानी
अजब होने के साथ गजब भी है

पृथ्वी उतनी हरी नही आज
जितनी की छोटे रोशनदानों में हुआ करती थी
ईंट पत्थरों के घरों ने
हरे रंग की हरियाली को जला जो डाली है
उनका उडना जितना भी हो पर सुरक्षित कम
आकाशगंगाओं में खो जाने का खतरा भी ज्यादा है !!!

जहाँ सूरज डूबेगा

मजमा है
निराशा और आशा का
कस्बा में सुबह से ही 
चहल पहल बढ गई है

हवा पतियों पर झुल रही है
शाखो पर कोंपले
जाने पहचाने शक्लों से 
गुफ्तगू कर रहें है

ऋतुओं के आने का वक्त तय है
वे बेवक्त नही आती
सूरज शाम के आते ही डुब जाता
समंदर में
अंधेरे ढुंढ लेते तारों को
रात गहराने पर 

मजमा में आये लोग
कतार में है
उन्हे चलना है अभी
दूर तक 
जहाँ सूरज डूबेगा 
शाम का होना तय है !!!


आनाथ स्पर्श

तस्वीरों की सच खोजती दीवारें
बनावाटी सच पर मिट्टी की खुशबू
आसमान से बरसते अन्नाजों  पर
राजनीति के दाल का काला और महंगा हो जाना

बढते भूखे-नंगो की गंगा-जमुनी प्रवाह में
जीवन को तलाशती आंखें

पिघलती सांसो मे शीशें का घुलना
बिलखते सपनों में गहराते अंधेरें
माँ की लाठी से गुम होती आवाज

बढते लोगों की तदाद में
अकेलेपन की बाढ से झुलसती अपनापन

और आनाथ स्पर्श से डर का खत्म हो जाना !!

शिक्षा शहर हो चली थी और

वक्त के लगाम को
आसमान लिये फिरता 
जिसे छूना सभी चाहते
पर डोरी कटी हुई
कुछ उम्मीदों की सिर
ढँक जाती थी छतों से
पर आनाथ और बेबस हिचकियाँ
बिलखती थी सडकों पर और
घसीट दी जाती थी निर्ममता से

चाँद के बरसने के इंतजार में
लोगो का छत पर होना
इतेफाक नही चाहत थी
सुबह से शाम की दौड में
सभी थक जो जाते थे 

सुबह डुबकर आता था सतरंगी
पर आंखे थी कि खुलती नही
रंग चढते पर दीवार अंधेरे में थे 
मरने के अंदाज पर दुनिया फिदा थी
जीना जितना सलीके से होता
उससे कही ज्यादा मरना 

बहुत दिनो तक पहाड खोदते जाना
बिखरते भी किसी रेत की तरह
सोचो जब दरिया डुबोता हो
जमीनी हकीकत को एक एककर
परिश्रम के दिनो में
उंगलियों के कटते ही पसीने चलते
और तपिश पेट में सांप बनकर
ऐंठता था महीनों तक

गाँव बेचैन बैठा रहा शहर के दहाने पर 
घासे कटती रही मजलूम और बेबस हाथों से
फकीर की छडी थी कुर्सियों की ताकत
और बारुद तैयार की जाती थी  बेबसी की
शिक्षा शहर हो चली थी और
गरीबी विस्फोट !!

क्षितिज पर ख्वाब लिये बैठा रहा

घटते बढते चाँद सा
सलोना चेहरा और
आंखे जलते दो तारे
पूरे आसमान पर 
पंक्षी के उडते रहना और
माप लेना  उसका
सूरज चाँद 

उंचाई मापने वाले
गहरे भी उतरे
और
पाताल के किसी कोने में
पडे तडपते पिंजडे तक पहुंचे
यह जरुरी नही   

अंधेरो के पहरे में
कैद एक बुत 
जिस्म और जान के
पत्थर होने तक चुप 

बादलों को क्या पता
उनके बरस जाने के बाद
पानी कहाँ बहकर जाता 
किससे मिलता है और
किससे नही मिल पाता

उफनता ऐसा जैसे
डुबोता कई महासागर
किनारो से लगकर
धरती पर फैलता 
लहलहाती हरी घासों में

इक चाँद जो
सौंधी मिट्टी की गहराई को
मापने का ख्वाब लिये बैठा रहा  !! 


छोडता दोनो जहान पर एक निशान है वो

कई दिनो तक
उडता रहा धूये की तरह और
कई रातों के सिरहाने
बिठाया उसने ख्वाब को
कबूतर के सही पते पर 
पहुंच जाने के इंतजार में
 
गली और नुक्कड पर
अपने होने के यकीन में
लेकर फिरता कोई खत
मंजिल की तलाश में बना
मुसाफिर का चौराहा सा
एक शक्स

गली के सभी घरो पर
एक जैसा लिखा कुछ
बिन पता हुये जा रहे
खत के
एक एक अक्षर से
टपकता रहा वो
ढुंढ लिये जाने तक
बैठा रहा कुरेदता रहा जमीन   

भूख और सपने के
बीच के आग सा
होता धुँआ धुँआ
छोडता दोनो जहान पर
एक निशान है वो !!  

शाखों पर कोंपलें तो तेरी थी

रौशनी की उम्र थी शायद
जितनी छोटी उतनी देर से डुबती
यकीन घास सा हथेलियों पर 
छोटे  उम्र में
हवा सा फैला हुआ होता था वक्त
उम्र के साथ घटता बढता 

सभी जरुरी चीजें
मरती थी एक एक करके
परम्परा कायम सभी रखते थे
रौशनी हर शाम सच्ची
उन जरुरतों पर मरती थी
जिन्हें दफना दिया गया था पैदा होते ही 

ऐसी परिस्थितियाँ कि
गट्टर में गिरे होने जैसे थे अकेले
जहाँ बदबू बेशुमार थी और सब बहे जाते थे
पर सडतें कीडें से थे अकेले
सांसो में मरे हुये से बचे थे अकेले

हरा जितना गहरा दिखता
उतना नही रहा कभी भी
ऐसे पस मंजर में राख  उडता रहा
सुलगते रहे और आग दबाते  
सीने में कही 
साकारात्मक होना सिखते रहे बस

शब्दो पर यकीन लगाये
बैठा रहा वक्त
वे तो भटकन थे जंगल में 
रौशनी को वे खाते रहे पर
जो अब फैल गये थे
तेरी गलियो में 
किसी पेड से आदमी की तरह

सांसों की छाँव में
शाखो पर
कोंपले तो तेरी थी   !!

पगली बदली की बौराई अंखियाँ

सलवटो के बीच
फंसी रह गई थी कोई
खुशबू गुलाब सी
पर कई सफहों में
तलाशते हुये सांसों को
जुलाई का महीना दर्द बना

शहर और गाँव के बीच
कई छोटे छोटे शहर फंसे मिलते
इनके बीच डग भरती हुई गाडियाँ 
फुर्ती में
फडफडाती हुई उनके ऊपर के फुल पत्तियाँ
जिसमें छोटा बडा‌‌ शहर सवार होता
झुलते वर्तमान और भूत के बीच
कई यादें खिडकियों से झांकतें मिलते

बडी आसानी से धूल जाती है
कुछ यादें
गर्मी के तपतें दिनों के बीच 
जब कोई अपना
अपना होने पर पट्टी बांध लेता हो
ढेरों रुलाता हो गर्मी में बहतें पसीनें की तरह

कल  मिला
पत्थर तोडतें हुयें पाषाण की तरह
एक मौत ही नंगी रही हर जगह
बेंच दी थी अपनी आंखे
और कपडों को लगा दी थी आग उसनें
सुखा मिला जब भी मिला
जल गई थी शाखें

ना जानें क्यों और कब से
बस रही थी  बस्तियों 
हर दस कदम पर 
कौन सा मंतर चल निकला था कि
पास वाले दूर वालों से
ज्यादा दूर थे

मिटती पगडंडियाँ
लौटनें का इंतजार करती रही
सावन भादों सब मौंसम
आते जाते
पर पगली
बदली की बौंराई आंखियों में
सबके सब ठिठकें पडें मिलतें  !!

एक बुढि‌‌‌‌या कात रही हैं सुत

उम्र की सांझ ढल गई
तमाम रास्ते
चाक जिगर से
गाँव से दूर
नदी के किनारे 
एक बुढिया कात रही है सुत

गुजरे वक्त के
मौसमों ने
खुब कहर ढायें हैं
जल गयीं हैं जमीन और
आसमान के कई परतें
छांव कही खो गया है
और
वह कात रही है सुत

बेशुमार शोर के बीच
अश्क रिश्तों के बह चले है
और डुबने को है
लाज दहलीजों की
औंर
वह कात रही है सुत

अंधेरे में
जरुरतें दम तोड रही हैं
भूख और प्यास से
बिलख रहें हैं बच्चें नवजात
दीपक की बात्ति
कही खो गई हैं
औंर
वह कात रही है सुत

माँ के आइने में
जाने और पहचाने 
अक्स धुंधलाने लगे है
कभी हाँथो को
तो कभी आंखो को छूती है
झुर्रियों में वक्त का स्पर्श
अभी भी करवटें ले रहा है
और
वह कात रही है सुत!!!

छुटकी का तिरंगा

कुते भौंक रहे है
और वह घर में बैठे
उनके आवाजों के पीछे
दूर तलक भाग रही है

गौरैयाँ भी सुबह होने का आगाज़
मधूर चहक से कर रही है
और कौवें कानों में
खराश पैदा कर रहे है
सभी पंक्षी सूरज के किरणो से
लिपट लिपटकर गा रहें हो
मधूर गान

गारे सीमेंट और चूनें की दीवारों से
आती इनकी आवाज
रुदन सी लग रही है
शहर की हवा भी सख्त है
उंचे मकानों की तरह

एक परिंदा
लोहे की जालियों पर
बैठनें की कोशिश कर रहा है
उसके पंखो की फडफडाहट
अच्छी तरह से सुन पा रही हूँ
जालियों पर उतनी जगह कहाँ
जितनी की पेड के शाखो पर होती है

नींद से जगने की बातों पर
वह हमेशा से बिलखनें लगती है
सलाखो के बीच
नींद पडी हुई है छिली हुई सी
और ख्वाब जख्मी

अथक परिश्रम के बाद
परिंदा
बैठनें में असफल रहा
पैरो और परों को
घायल कर लिया है उसने 

टी.वी पर कुछ लोग
चिल्ला रहे हैं
वे दवा बनाना चाहते हैं
घुटनों के लिये
घर में बैंठे सभी लोग हाथ उठा रहे है
समर्थन में

छुटकी चिल्ला रही है
माँ नही सुनती रसोई में
माथा पोंछती है और
पतीले में कुछ पकाती है दिनभर
थक जाती तो याद करती है बचपन 
और उसे कलेजे से लगाती है

रोज सुबह ऐसे ही
पंक्षियों की आवाज आती है
कुछ पंख घायल होते है
जाली पर बैठने की चाहत में
जाली के अंदर से
छुटकी तिरंगा दिखाती है
और खिलखिलाती भी
माँ की आंखे डबडबा आई है
उसके गालों को थपथपाती है
आंखो में भर लेती है
बहुत सारा प्यार !!

सांसों के इर्द गिर्द घुमती जिंदगी

जिन्दगी कई तरह से
धुमती रही चबुतरे पर
रखे सांसों के इर्द-गिर्द
पनाह चाहिये उसे
तेरी तीखी तल्ख
शिकायतों से बचने के लिये

चलता उगता बढता वक्त
कभी भी नही रुका 
छिले जख्म सुखे नही कभी
नम सांसो से
जिंदगी पिघलती रही

शिकायते तेरी जायज़ रही
पहचान तो मुक्कमल हुई
करीब आते गये और 
दो गज जमीन नसीब ना हुई
रुह को

जिंदगी अपने लिबास में
खाक छानती रही
दरख्त की
दर्द को नंगे हाथो में लिये
फिरती रही वो

यह सच है कि
अभी एक ख्याल बाकि है
तू मिल तो सही !! 


सीलन है गुजरें वक्त के दीवार पर

कई दिनों से
खाली पडी है दीवार
जो कभी अपनों की
तस्वीरों से हरी भरी रहती थी

जानें कौन से वक्त में
बना डाली थी
हवाई किला उसनें
दीवार पर टंगी तस्वीरों ने 
सांस लेना छोड दिया था 

सख्त दीवारों में
सीलन पडी थी गुजरें वक्त का
जिन्हें छूते ही बेज़ान हो
गिरने लगती थी पपडियाँ

दीवार सूनी थी
खराश गहरी

लौटता वक्त बडी सलिकें से
कुरेद गया था उसे !!

दर्द की आंख नही होती

देखती हूँ उसे  
गुजरते वक्त की तरह

वही जिसने अपने सारे अश्क
मेरे हथेलियों पर रख
और डूबी हुई सूरज के मानिंद
समंदर में गोते लगा रही थी
प्रश्नों के भँवरजाल के बीच 

उसकी उम्र शायद
उतनी है
जितनी की एक माँ की होती थी
बरस रही थी मेघ की तरह
पर अस्तित्व उसकी प्यासी थी

फूँकार रही थी सवालों के बीच
दूसरे ही पल 
कसी हुई जंजीरों में फडफडा भी
पंखों के टूटने से घायल भी थी
समाज और उसके बीच की खाई में
गिरने से तिलमिला गई थी

समाजिक होना भी 
खाक होने जैसा था
जिसमें कही कोई चिंगारी नही होती  
एक बहते हुयें  शांत सोते की तरह होना था 

अप्रत्यक्ष दर्द जो उसके पलू में बंधे चलती थी 
वह उसके आग में जल रही थी
गांठों से मुक्त हो
समताप में जीना चाहती थी

समय को दुहाई और
माँ-बाप की मजबूरी
बेटी परायी जात
एक रस्म है
यह उन्होनें नें बना रखा था 
जिन्होनें उसे साडी में लपेटकर
खुद को बंधन से मुक्त कर लिया था  !!

हद तो तब हुई

शीशे में
उतरना क्या हुआ
कहने लगे वो कि
निखर गई


शहर का मौसम
खुशगवार क्या हुआ 
नजरों में दिखा
उनको कि
मचल गई

हद तो तब हुई
शाख से टूटकर
एक पत्ता
गिरा जब
वो समझे कि  
बिखर गई !!

एक तितली

चलते हुए सपनें में
एक तितली
भरती रंग पंखो पर

हरा नीला पीला सब
इंद्रधनुषी
आसमान छूने की चाहत में
चलती बादलों पर
भींगती बारिशो में

और फिर
बहती सात सूरों में
सुरीली  हो 
मिल जाती समंदर से 
किनारो से टकराती
छूती लहरों को

सभी मौसमों में
रंग भरती 
थकती नहीं
चलती जाती
उडती डाल डाल और
पात पात
हर सफर हर राह

आसमान ऊँचा सही   
पर रंगीन परो पर
चाँद सूरज बिठा
छू लेती गगन 
एक तितली चलते हुए
सपनें में !!


ठहर तो सही सफर अभी बाकी है

ठहर तो सही
सफर लम्बी है
धूप बेसुमार
चिलचिलाती छाँव से
थकान प्यासी है

अगले दो कदम पर बादल मिलेंगे
सूना है वे
ठंडी हवायें ढोते हैं पानी नही
चाहत है उन्हे भी देख लूँ जरा

प्याउ है उधर
जा थोडा पानी पी ले
सफर हैं तो प्यास लगेगी ना

जल्दी जाने की चाहत मत रख
वरना  पैर
कंटीले वक्त से
जख्मी हो जायेंगे
आखिर चाहत अंधी और बहरी
जो ठहरी

देखा..... ना
कल ही तो
हिमालय से आनेवाली ब्यार
लहूलुहान पडी मिली थी
छूट चुकी चौराहें पर

सफर मे कई आंखो का होना
जरूरी सा लगता है अब
है ना....

तलाश रास्तों की अभी बाकी हैं

वह उस जंगल में है अभी तक
जहाँ अवतरण होता है हर किसी का
सांसों के गिनती के साथ
लोग बने रास्तो पर निकल जाते है

खोज रही है सांसों का विकास
वो रास्ता
जो बना बनाया ना हो
क्योंकि नयी और पुरानी जमीनों के बीच
कुछ लोग भटक चुके हैं

वह बनाना चाहती है
पूर्वजों के जमीन पर
एक नया रास्ता
जो थोप कर नहीं बनाई गई हो
जिसपर चलना बनावा और छलावा ना हो

जिस रास्तें का चेहरा मुस्कुरायें
जिसपर आदमियत चलती हो
नाक पर जीने वाली दुनिया
सिर्फ भेंद पैदा करना जानती हैं
जहां दिल रोता है अरमान बिलखते हैं

मेरे और तुम्हारे बीच की जमीन
जिसका रंग भी एक जैसा हैं ना
उन्हें तलाश है  आज भी
उन रास्तो की !!!

समंदर नही उफनता

मछलियां अब बारिश में
भींगनें को मजबूर है
क्योंकि समंदर  कल  शाम से 
औंधे मूंह पड़ा  है

साहिल  की  उदासी  में
चाँद  झलकता है  
लहरों की  जल समाधि में
सूखी पडी है नमी जमीन की 

शोर  है  किनारों  पर 
दिल सूना धडकनो से
छुपा ली है लम्स समंदर ने
लहरों के
अपने  दामन  में 

धरती के सीने पर
समंदर नही उफनता अब
क्योकि चाँद पर पानी मिला है   !!!     
     

चाँद को माथे से लगा

परेशानियों को आसमान में
बिखेर के
उनपर रंग भरते हुये
देखा था उसने
हथेलियों पर ले उन्हे
वह उडाती थी मानो गुलाल 
जैसे होली आस-पास के मौसमों पर
छा गई हो
और वह रंग की तरह
पडती थी दु:खो पर

कई जगह से आसमान को
उसनें छुआ था
स्पर्श के रंग बदल गये थे तब तब
मानो आकाशगंगाओ को
शब्दो ने रंग दिया हो
वह कोई चाँद था जिससे हर तारा
रश्क करता दूर होने पर

उसनें सांस को
रस्म की तरह लेना सिखा तब 
वह खुशबू को नही पहचानती थी
इक फुल की तरह 
आज जब दरवाजे से सड़्क गुरजती है
और वह जिंदगी को
दबा पाती है शोर में
तब 
जी भर किताब हो लेती है
बंद अक्षरों की खुशबू में

वह धरती के सीने पर
नन्हा मृग हो बेखौफ कुलाचे भरती 
जिंदगी से भरी
शब्दों के महक से
एक से दूसरे छोर तक जाती
और घण्टों बहती उसके पानी में
कलकल

हमारा लौटना चाहे जहाँ भी हो
पर हम नही लौटते 
किसी सम्प्रदाय की तरह
हम समंदर पर चलते 
सूरज को हथेली पर लेकर डूबते
चाँद को माथे से लगा
तारों को जिस्म पर समेटते
और मर जाते थे एक कविता पूरी होने के बाद

और वे फिर फिर नजर आये 
कही सहराओं के खाक छानते हुये
उन्होने बताया था कि यह दूसरा जन्म है
यहाँ दूर फैला रेगिस्तान है 
और तपिश भी ज्यादा उसके भटकन में !!

यंत्रो के षडयंत्र में

सिसक रही है कोठियाँ
ईंट पत्थरों के जुबान  से 
खालिश रेत सी है भाषा
दीवारों पर
स्पष्टरुप से  चेतावनी लिख दी गयी  है

ग्लोबल वार्मिंग पर
रईसी माथे का टीका है
जो नित नए नुस्खे से
बढ़ा रही है ताप
यंत्रो के षडयंत्र में 

पौलिथींन एक फैशन
तो  दूसरी  तरफ 
पलायनवादी स्वाभाव  के कारण 
सब भाग रहे हैं जमीन से 
और चिपक रहे हैं आसमान से
पर कही कोई पंख नहीं है

सुविधाओं के ऊँचाई से
गिरने के बाद कही कोई जमीन नही मिलेगी
चारो तरफ खाई पसरी होगी

सबके लिए करींने से परोसा जा रहा है खाना
और हम सब सिसकती घरों को भूलते जा रहे हैं
और भूखी नंगी दीवारों को 
जो रोती है बीते पहर 
कान और आँख ऊँचाई पर
काम करना जो बंद कर  देते  है

मानवीय जुबान गुंगी हो चुकी है
यंत्रो के षडयंत्र से
पर आज भी अनिष्ट के अशंका में 
कुत्ते भौंकते है गलियों में 
बीते पहर जब सब सो रहे होते है !

जिस्म जो पिघल जाता है शीशे में

सच्चाई से परहेज क्यों है
समाजिक आडम्बर जब
शीशे से छनकर बाहर आती है
और आंख दिखाती भी है
तब हम जेहादी हो
मारते खुद को है
समाजिक तिलिस्म पर

हाथी भी मौन में
कई मन एक दिन में खाता है खुराक
ठीक ऐसे ही हम चबाते है
सुबह से शाम तिलिस्म आदर्शो की 
ठीक सोने से पहले तक

मुखौटो पर रंग सबसे ज्यादा
काला ही लगा होता है
फिर फिर पहनते है
और लौटते हो
मानो लौट जायेंगे
सात समंदर
और जिस्म भी बदल देंगे
जैसे बारिश के बाद धूप
इंद्रधनुषी हो 
बदल देता है आसमानी चेहरा

कई हिस्सो से जिस्म कटता
मोम सा विचार भी
खाता रहा हैं जलकर सीने को
पैदा होने से लेकर अंत आने तक
चेहरे कितने तेजी से बदल लेते है
रुप और साज-सज्जा बखुबी
यह  कोई मानविय चाल है

नाटक के प्रथम चरण और अंतिम चरण
शुन्य में दिखता है
मध्यांतर के पहले और उसके बाद
पहले सिखी बातो को
झुठलाता है और आडम्बर में जीते हुये
दोहराव को ओढता है
कुढते हुये शून्य में
सहज पलायन करता है अंत में

दरअसल
पलायन जिस्म का नियम है
पर समाजिक तिलिस्म
मानविय?????

एहसास के पहले पंख

सुबह सूरज का
अपने क्षितिज पर
आने से ठीक
पहले के वक्त मे

दादा के लगाये बगीचे
जो नन्ही नन्ही घासो से बनी थी
एक सुबह थी
जिसमे एहसासों ने सांस लेना
सिखा कभी

कभी घासो से बाते
तो कभी सिंघाडे के पेड से
तितलियो के पीछे
भागते हुए
उनके पंखो पर लगे
रंगो को गिनना

तो कभी गिरे ओंस के बूँदो में
मोती तलाशना
और शबनमी बूँदो को
ऊँगलियो पर लेना
और धन्य हो जाना

गिरे फूलो से
गुडियो के लिये घण्टो गहने बनाना
रातरानी की घासो मे
लिपटी खुशबूओ के बीच

नीले आसमान का सुनहारा होना
और फिर
किरणो से आँखो को सेकना
हरी जमीन पर ठंडी पाँवो को
थिरकते देखा था
भोर होते वक्त
बचपन में !!

रौशनी दुविधा में है

रास्ते भी ना
कितना अकेला होते है 
मुसाफिर तो मंजिल को निकल जाते है
कोई भी किसी भी
रास्ते के लिये नही रुकता 
ठहरे हुये रास्ते   
खडे रहते है श्रमशील 
हम जैसो को आगे बढाने के लिये
पर उनका भी एक दर्द है
और वे इंतजार में है दरअसल
मंजिल कब ठहरेगा उनके वास्ते 

रेगिस्तान के फैलाव और तपिश में  
उसकी नजर जवान हुई थी
और इसतरह इश्क के मृग-मिरीचिका में 
रेगिस्तानी कैक्टस से दो-चार होती रही
कांटो की चुभन में रात सांस लेती 
अश्क सूरज की प्यास बुझाता
दरिया अरमान के बहते हुये
सुखते रहे थे

जब तुम्हारी उंगलियो ने
आसमान से झरते नीले सपने को
स्पर्श का जामा पहनाया था
और उसी वक्त 
समंदर के छिछले तल में उसे
छोड दिया था तन्हा 
तब भी वह ढुँढती रही मोतियाँ
तुम्हारे उंगलियो के वास्ते 

बहुत दूर निकल गई थी
घुटनो के बल अकेले ही
उसके कंधो पर नन्ही कोंपले तो थी
पर पेड की छाँव दूर दूर तक नही
आज भी उसे छाँव
एक छलावा लगता है
और भटकावमात्र प्यास का

असमान में पक्षियो के झुंड को
उडते देखती और
घंटो सोचती, खुशकिस्मत है ये कि
साथ साथ लौटते है घरौंदो को
इनकी जुबान नही होती पर इक्कठा रहते है
और कितना कुछ पहचानते है
आंखो से एक-दूसरे को
कितना अच्छा होता कि इंसानी तहजीब में
यह बात शुमार होती

जिंदगी जितना भरती
उससे कई गुन्ना अधिक खाली हो जाती
लोगो को कहते अक्सर सुना था कि
खाली हाथ है हम 
जिसे वे भरना चाहते थे   
भूख उन सभी लोगो को भी थी
जिनका घर सोने का था

घुप अंधेरा
जहाँ के हम सब वाशिंदे थे 
पर अपने बच्चो को नही दिखाना चाहते थे
रोना जिंदगी का
हर हाल में
क्योंकि वे  जानते थे कि 
कि रौशनी में
उजला रंग कम काला ज्यादा है
जो जीवन को प्रज्जवलित करता है

रौशनी दुविधा में है
सच्चाई से परहेज क्यो है आंखो को ??

कैद है धड़कन

लोगों का कहना था कि
आज चाँद पर उथल-पुथल है
इसतरह मेरी जमींन की चाँदनी धुंधलाने लगी 
और धडकनें भी
तुम्हारे मुठ्ठियों में बंद पडी रही

रात स्याह कुछ ज्यादा थी
वह खडी रही मेरी जमीन पर
भोर के इंतजार में
पर सूरज थोडा कम था
सुबह आंख मुदे पडा रहा
तुम्हारे किनारे से लग

ना तुमने मुठ्ठियाँ खोली 
ना भोर ने आंखे  
न रात को नींद आयी
और धडकनें भी बंद रही
तुम्हारी मुठ्ठियों में  कही !!

एक पूरे दिन में

हरतरफ कुछ बह रहा है
सूख - सूखकर
वह मंत्र भी जिसने दुनिया को
चलना सिखाया

देखो ना
उस पुराने किले के बाहर
जो नदी थी ना
जिसमे बुद्ध का अहिंसा वाला मंत्र भी सूख गया और
जमीन फट गई है

आसमान का नीलापन भी धुंधला गया है
वही हमारे हाथो के बीच का
तुम और मै भी
भूरे रंग की दुविधा में झूल रहे है

शीशे में किसी भी अक्स का चेहरा साफ जो नही है
जमीन से जुडी हर चीज
पृथ्वी की बढती ताप से
भाप बनके उड जो रहे हैं

सबने तो अपनी अपनी कह ली
प्रश्न तो यह है कि
बापू की बहुत सारी बातो से
सहमत तो है हम सब
पर कितने कदम चल पाते है
एक पूरे दिन में !!





भारत मेरा देश

भारत मेरा देश
मेरी बेटियों सा दिखता है मुझे
उनके नाजुक हाथो में
खींची लकीरो जैसा ही तो हैं
उसका आने वाला सबेरा

आंखो में रौशन खुशी जैसा ही
इसकी प्रकृति सम्पदा
उनकी हथेलियों सी नरम
इसके पावन धरती
अपार सुकून जैसे
क्षितिज पर विस्तार इसका
खिलखिलाती है तो
मुझे तिरंगे की याद दिलाती है

पर जब मै ख्यालों में
इन्हे बडा होते देखती हूँ तो
डर से भर उठती हूँ
इनकी सुरक्षा को लेकर
तब भी मेरा देश भारत
मुझे याद आता है !!!