शाखों पर कोंपलें तो तेरी थी

रौशनी की उम्र थी शायद
जितनी छोटी उतनी देर से डुबती
यकीन घास सा हथेलियों पर 
छोटे  उम्र में
हवा सा फैला हुआ होता था वक्त
उम्र के साथ घटता बढता 

सभी जरुरी चीजें
मरती थी एक एक करके
परम्परा कायम सभी रखते थे
रौशनी हर शाम सच्ची
उन जरुरतों पर मरती थी
जिन्हें दफना दिया गया था पैदा होते ही 

ऐसी परिस्थितियाँ कि
गट्टर में गिरे होने जैसे थे अकेले
जहाँ बदबू बेशुमार थी और सब बहे जाते थे
पर सडतें कीडें से थे अकेले
सांसो में मरे हुये से बचे थे अकेले

हरा जितना गहरा दिखता
उतना नही रहा कभी भी
ऐसे पस मंजर में राख  उडता रहा
सुलगते रहे और आग दबाते  
सीने में कही 
साकारात्मक होना सिखते रहे बस

शब्दो पर यकीन लगाये
बैठा रहा वक्त
वे तो भटकन थे जंगल में 
रौशनी को वे खाते रहे पर
जो अब फैल गये थे
तेरी गलियो में 
किसी पेड से आदमी की तरह

सांसों की छाँव में
शाखो पर
कोंपले तो तेरी थी   !!

8 comments:

  1. सांसों की छाँव में
    शाखो पर
    कोंपले तो तेरी थी !!कोमल भावो को खूबसूरती से पिरोया है।

    ReplyDelete
  2. साँसों की छाँव में
    शाखों पर
    कोपलें तो तेरी थी!!!
    गहरे भावों को खूबसूरती से पेश किया है आपने खूबसूरत अभिवयक्ति
    समय मिले कभी तो आएगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

    ReplyDelete
  3. गहरे और कोमल भावों से रची गई बेहतरीन रचना ....

    ReplyDelete
  4. खुबसूरत अहसासों को लफ़्ज दे दिए बहुत खूब .....

    ReplyDelete
  5. नाजुक भावों में रची-बसी रचना.

    ReplyDelete
  6. Aaha , ye sukoon de rahi hai ya marham lagaa rahi hai ...kavita me rach bas gayaa hai jeevan ka asli roop...

    ReplyDelete
  7. बहुत सुन्दर रचना!
    आपकी लेखनी और सोच का जवाब नही!

    ReplyDelete