माँ की तरह रोती रही

बारिश ने खुब डुबोया आसमान
डूबते घरों के बीच से
आती चीखें
तिनकें से सहारा मांगने जैसा
ठूंठ पर बैठा परिंदा गवाह बना

भूखे पेट और नंगें बदन
छोटे बच्चों के बहती नाक पर
भिंनभिंनाती मख्खियाँ
और माँ का फटा आंचल
धरती के सीने पर
विचित्रतायें थी कई जगह पसरी हुई

डूबतें गाँवों में
परम्पराओं को सूखते देखती रही
भूख की आग पर
मिटती रही सम्वेदनायें
मसलन
जब पानी
पानी की तरह नही बहता था
साबुन नसलों को धोते हुयें
भूख के पतीले में
एक एक आग
जल जाती अन्न पर

और वह बैठी कोनें में
माँ की तरह रोती रही
जब भी किसी गाँव और शहर को
डुबते और जलतें देखती
गिडगिडाती  रहन्नुमाओं के आगे
बचा लो
गंगा और सीता को डुबनें से
दे दो भोजन जिंदगी को
दो जून की

वह भी जी ले
कथाओं और परम्पराओं की तरह
सुंदर हो ले
हिमालय से निकलकर
पवित्र भी
कोयल की कूक सी
थोडा मधूर भी !! 

6 comments:

  1. वह भी जी ले
    कथाओं और परम्पराओं की तरह
    सुंदर हो ले
    हिमालय से निकलकर
    पवित्र भी
    कोयल की कूक सी
    थोडा मधूर भी !! marmik rachna...

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  2. अच्छी रचना ,अच्छे भाव , बधाई ।

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  3. डूबतें गाँवों में
    परम्पराओं को सूखते देखती रही
    भूख की आग पर
    मिटती रही सम्वेदनायें

    अतयंत ही मार्मिक.

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  4. फेसबुक में पढ़ी आपकी यह रचना...
    सचमुच! फिर से दाद/बधाई स्वीकारें...
    सादर....

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  5. heads up to u ..sandhya..bahut achchha likhte ho aap

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