तू बहता रहा हर कही

कौन कहता है कि
तुझे याद नही 
पंक्षियो को उडाना हैं खेतो में
मेढो से लगकर
रोकना है पानी के उन धारो को
जो पिता के खोदी जमीन से बहती थी    
 
प्यास उपजती थी
खेतों में उनदिनों
और अन्न मेहनत जैसा था  
पर आज सुखता जाता है
कुँआ भी हर जगह
तुम भागते तांगो के पीछे
छूटते शहर और गाँव के निशानों पर
लिखते रहे चने जैसा कुछ
गरीबी की भूख मिटती रही  
 
अंतरिक्ष में घुमते पिंड खिसकते रहे
और जगह भी बदलते रहे
उनके बदलाव के कारणों को
जानने के वास्ते तू
बैठा कुछ गिनता रहा

वक्त की मार से
पत्तियाँ गिरती रही शाखो से 
रुहें उडती रही
और स्याही बन 
फैलती रही पन्नों पर
अक्षरें नम मिलती रही  

तेरी खिंची चित्रों की जिस्म से
लिपटी रही लरियाँ यादों की  
वक्त की बेरुखी से
दफन होती रही गहरे
बांझ पृथ्वी के कोख में

तेरे अश्क
मिठे पानी के झील बनते रहे
शीतल करते रहे पसीजते हथेलियों को
जब भी दोपहर उमस खाती
तब रात डुबती रही
चाँदनी बनती रही

तू बहता रहा हर कही
पर देख तो सही !! 

9 comments:

  1. तेरे अश्क
    मिठे पानी के झील बनते रहे
    शीतल करते रहे पसीजते हथेलियों को
    जब भी दोपहर उमस खाती
    तब रात डुबती रही
    चाँदनी बनती रही

    बहुत ही खूबसूरत रचना।
    ----
    कभी यहाँ भी पधारें

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  2. बहुत खूब. शानदार रचना. आभार.

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  3. लिखते रहे चने जैसा कुछ
    गरीबी की भूख मिटती रही

    गहन भावों को समेटे अच्छी प्रस्तुति ... दीपावली की शुभकामनायें

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  4. बहुत अच्‍छी प्रस्‍तुति ..
    सपरिवार आपको दीपावली की शुभकामनाएं !!

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  5. achhaa lagaa aap ke blog ko dekh kar ,sundar rachnaa ke liye badhaayee sweekaar karein

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  6. गहन अभिवयक्ति....बहुत ही सुन्दर... शुभ दिवाली...

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  7. प्रभावशाली प्रस्तुति
    आपको और आपके प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें….!

    संजय भास्कर
    आदत....मुस्कुराने की
    नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  8. गहरे भाव छिपे हैं इस रचना में ... दिल के जज्बातों को शब्द दिए हैं ...
    दीपावली की मंगल कामनाये ...

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