जंगल को शायद कभी बचाया जा सकेगा

जडें जल रही है उन जंगलो की
जहाँ हिंसक जानवर नही रहते 
जीवन वैसे ही उगता है वहाँ जैसा बोया गया है
बडी निर्ममता से काटे जा रहे है जंगलो को
और जलने तक छोडा भी

वक्त गाडी की पहियों पर सवार चौतरफा 
थकान से रगों में लहू ठंडी
बढते रफ्तार में ठहराव को विस्तार नही मिला 
और भागते हुये जीवन में
सपना आकाश से लटकता हुआ एक फल और 
पकने का इंतजार सबको रहा है अबतक

किसी गाँव के बगीचे से आती खुशबू और
चिमनी के धूँये में मजदूरो की जलती आंत से
आती बू से आइने धूँधलाने लगे है
वक्त के साथ मिट्टी भी जमीन छोडने  लगी है 
और ठिठूरती सर्दी में गरीबी का पलता सपना कि
सुदूर गाँव से उठने वाला आग
थोडा गर्मी पैदा करेगी
तब कुछ दिन ठीक ठीक बितेंगा 
और गाँवों में हिरण और मोर भी आयेंगे
खुब खुब ईद और दिवाली होगा

पर वो आग जो बुझता ही नही
ग्लेशियरो के पिघलने जाने से
जलन में पैदा राख से आंधी फैलने का दबाव
मौसमों पर बढता जा रहा है 
कुर्सियाँ अपनी जगह पर खुब सुरक्षित है
जमीनी हकीकत से दूर
लहलहाती घासों पर बैठी हुई
और उनकी नींद गहरी   

चलते हुये लोगो में
चेहरे पर विवशता और आंखों में
गहराई लिये हुये भाव ऐसे बैठे है कि
तंत्रो की तंत्रिकाओ में
तंतुओ से बेबसी दौड रही है
और निराशा गतिशील तंतुओ पर सवार हो
सम्प्रेषित कर रही है खौफ और डर 
तलाश भी रही है उम्मीद
पर जिसके जल जाने का अंदेशा निरंतर बना हुआ है
तमाम अश्वासनों के बावजूद 

जंगल को शायद
कभी बचाया जा सकेगा !!

6 comments:

  1. मर्म को भेदती यह कविता वक़्त रहते चेत जाने का संदेश देती है। जंगलों को कटने से नहीं बचाया गया तो परिणाम मानव अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने वाले ही होंगे।

    सादर
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    कभी यहाँ भी पधारें

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  2. बहुत सार्थक रचना ..
    जंगल को बचाना ही होगा ..

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  3. सार्थक अभिवयक्ति.....

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  4. जंगलों को बचाना होगा मनुष्य के अस्तित्व के लिए ...
    सार्थक रचना है बहुत ही ...

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  5. सार्थक अभिव्यक्ति ....

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