मंगल काका भुलने लगे है अब

तीन जोडी आंखे
एकल परिवार की तस्वीर
सहेजे हुये
आंखो में आसमान और
उसके रंगो की भरमार 
वक्त की अग्निकुंड में हवन होता सपना
एक तितली अनेक तितलियाँ
डाल डाल पात पात

आंखे लाल पीली शर्मीली
खौफ के रंग गहराता
लुढकता पुतलियों पर
माँ बाप विवश जमीन पर
सूरज को उगाते हुये
जलाते हुये अपने हाथ

खेतों से उडाते हुयें पंक्षी
भरते जाते है पेट
कोयल कन्धो पर बेसुध गाती
कोई मंगल गीत पर
गेन्हूँ की बालियों का रंग उडता जाता

बनाते कुँआ कल बहन आयेगी
भूखी प्यासी और भर भर आंख पियेगी
गौरैयो का जख्म
आओ कुछ राह जोडते है
मंगल काका पगडंडियो को
अब भुलने लगे है!!

5 comments:

  1. वक्त के बदलते स्वरूप का बढ़िया समावेश है आपकी इस रचना में शुभकामनायें ॥समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  2. हमारे तथाकथित विकास का आइना दिखाती हुई रचना .

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  3. यार्थार्थ को दर्शाती अभिवयक्ति.....

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  4. बहुत सुन्दर रचना... शुभकामनाये...

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  5. 'आओ कुछ राह जोडते है'
    इस आह्वान से हमारी संवेदनाएं जुडें तभी बदलाव संभव है...!

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