सांसों के इर्द गिर्द घुमती जिंदगी

जिन्दगी कई तरह से
धुमती रही चबुतरे पर
रखे सांसों के इर्द-गिर्द
पनाह चाहिये उसे
तेरी तीखी तल्ख
शिकायतों से बचने के लिये

चलता उगता बढता वक्त
कभी भी नही रुका 
छिले जख्म सुखे नही कभी
नम सांसो से
जिंदगी पिघलती रही

शिकायते तेरी जायज़ रही
पहचान तो मुक्कमल हुई
करीब आते गये और 
दो गज जमीन नसीब ना हुई
रुह को

जिंदगी अपने लिबास में
खाक छानती रही
दरख्त की
दर्द को नंगे हाथो में लिये
फिरती रही वो

यह सच है कि
अभी एक ख्याल बाकि है
तू मिल तो सही !! 


सीलन है गुजरें वक्त के दीवार पर

कई दिनों से
खाली पडी है दीवार
जो कभी अपनों की
तस्वीरों से हरी भरी रहती थी

जानें कौन से वक्त में
बना डाली थी
हवाई किला उसनें
दीवार पर टंगी तस्वीरों ने 
सांस लेना छोड दिया था 

सख्त दीवारों में
सीलन पडी थी गुजरें वक्त का
जिन्हें छूते ही बेज़ान हो
गिरने लगती थी पपडियाँ

दीवार सूनी थी
खराश गहरी

लौटता वक्त बडी सलिकें से
कुरेद गया था उसे !!

दर्द की आंख नही होती

देखती हूँ उसे  
गुजरते वक्त की तरह

वही जिसने अपने सारे अश्क
मेरे हथेलियों पर रख
और डूबी हुई सूरज के मानिंद
समंदर में गोते लगा रही थी
प्रश्नों के भँवरजाल के बीच 

उसकी उम्र शायद
उतनी है
जितनी की एक माँ की होती थी
बरस रही थी मेघ की तरह
पर अस्तित्व उसकी प्यासी थी

फूँकार रही थी सवालों के बीच
दूसरे ही पल 
कसी हुई जंजीरों में फडफडा भी
पंखों के टूटने से घायल भी थी
समाज और उसके बीच की खाई में
गिरने से तिलमिला गई थी

समाजिक होना भी 
खाक होने जैसा था
जिसमें कही कोई चिंगारी नही होती  
एक बहते हुयें  शांत सोते की तरह होना था 

अप्रत्यक्ष दर्द जो उसके पलू में बंधे चलती थी 
वह उसके आग में जल रही थी
गांठों से मुक्त हो
समताप में जीना चाहती थी

समय को दुहाई और
माँ-बाप की मजबूरी
बेटी परायी जात
एक रस्म है
यह उन्होनें नें बना रखा था 
जिन्होनें उसे साडी में लपेटकर
खुद को बंधन से मुक्त कर लिया था  !!

हद तो तब हुई

शीशे में
उतरना क्या हुआ
कहने लगे वो कि
निखर गई


शहर का मौसम
खुशगवार क्या हुआ 
नजरों में दिखा
उनको कि
मचल गई

हद तो तब हुई
शाख से टूटकर
एक पत्ता
गिरा जब
वो समझे कि  
बिखर गई !!