आज नही तो कल तुम्हारी बारी है

नरम सुकोमल पंखों को
विस्फोट से
वे उड़ाते रहे उन्हें

धरती की नरम घासें
सूख कर पीली होती रहीं
कुर्सियों  की भार से

बंदूक से छलनी करते थे वे
और रुपयों को उछाल कर
पत्थर तोड़ेते थे  

गौरैयाँ दबोच ली जाती थी और
मासूम बलि चढ़ते थे
और माँ मिट्टी की घर थी

पर जिस दिन
निर्दोष लोगों की भूख
उछल कर महलों तक आयेंगी
उस दिन मत पुछना कि
गलती क्या थी हमारी

उनसे बचकर रहना
अय तंत्र
जिन्हें तुम नेस्तनाबूद किये जाते हो !

एक कीड़ा रेंगता है पूरे कैनवास पर

नन्हें आंखों को
कई चश्मे मिले
सांसो की सफर में

चश्में चढे‌ आंखों की
तह में
एक कीड़ा रेंगता है
भय के पर्दे के बाहर
नही आता ,पर
अक्सर रात के सन्नाटो में

आँखो के धुंधला जाने पर मातम मनाता है

रौशनी की चाहत में
रौशन दीये की तरह जलता भी है
एक कीड़ा
बेहद घनी जिंदगी के बीच
कुछ जाले बुनता है
नर्म और गुनगुना !

चाँद तारे तोड़ लूं

तू ज़रा करीब आ
तो पुछ लूं
कि उनका सूरज दूर क्यों है ?

चिराग़ सिर्फ
बंद दीवारो के बीच
सकून तौलते है
आ ज़रा करीब तो
चाँद तारे तोड़ लूं

उन्हें भी मय्यसर हो
उजाले 
फेर जरा हाथ तो 
वो नज़ारे जोड़ दूं !!

बाज़ार की नज़र में

आसमान के नीचे की दुनिया सिमट गई थी
छ्तो की चौड़ाई बढती रही 
और परिंदों के परों पर उड़ान भारी था

पत्थरों से टकराते रहे
सम्वेदी तंतुयें 
प्यास बढ़ती रही और
पंख झड़ते रहे

बाजार की नजर में
दुनिया बिल्कुल गोल थी
और आदम जात एक वस्तु !!

तेरे शहर में

फख़्त
दो चार दिन की चाँदनी थी
और वक्त कातिल
शहर में हरशख़्स
यूँ ही तन्हा न था

एतवार अपने अक्स पर
क्यों ना करते
पर आइना शहर का
पुराना बहुत था

तेरा शहर मशहूर बहुत था
आते रहे हररोज़
तितलियों की चाहत में 
पर पहचान बदलकर  !!

दहलीजें उनकी जला दी गई थी

खास लोग थे जिन्हें
लोहे की फैक्टरी खोलना था
गरीबी की सारे मोम पिघल गये थे
और उनकी दहलीजें जला दी गई थी

जंगल में सूखी लकडियों की बाढ़ आ गई थी
और उनके रैन-बसेरों को जलाया जा रहा था
जो जीवन को जीना जानते थे
घातक नही उर्वरक थे
समाज की सुक्ष्म इकाई

और इंसानियत के आधार भी

वर्दीधारी बंदूकवाले
उनके पीछे छोडे गये थे
ताकि जंगल को मिटाया जा सके
और पत्थरों को उगाया !

और अब कैद में है

वर्षों तक एक ही शब्द के जिस्म में पनाह ले रखी थी
और बाहर महंगाई काट रही थी अक्षरों को
पन्नों पर स्याही बिखरने लगा था और हम थे कि
शुतुर्मुग की तरह 
तुफान न होने की सम्भावाना को बनाये रखने के लिये
सिर छुपाये बैठे थे

कहर कुछ इसतरह बरपा था कि
सम्वेदनायें शाखो से कट कटकर गिर गई थी और
हम ठूंठ पेड़ को
समझ बैठे थे अपना घर
पन्नों के हिस्से में थी प्यास जो खाली था 
उसे पढने के लिये ज्ञान की नही
बल्कि दिल की जरुरत थी 

वह घर जो सफ़र में छूट गया था अकेला
अब वह किताबों से भरा पड़ा है
और हम भटक रहें शब्दों के भीड़ में
उसका मिलना
किताबो के बीच सूखें फूल की खुशबूओ की तरह है 
जिसे ना कोई किताब
ना वक्त ही कैद कर पाया
वह उड़ता रहा हम भटकते रहे
और अब कैद में हैं
सजे-सँवरे किताबों के बीच !!

उतरने के लिये बुद्ध होना जरूरी था

त्रिकोण हवा में लहराता रहा
एक सिरे से
मानो कोई पोस्टर हो
जिसपर जिंदगी छपी थी और 
बेबसी टंगी

अट्टालिकाओ के बीच
हवा में परेशानियाँ घुली हुई थी 
दीवारों के बीच जिंदगियाँ चून दी गई थ
मुर्दे चलते थे
और वक्त दो धारी तलवार 
अंदर और बाहर के बीच 
दरवाजे पर लटकता रहा

सड‌क पर लोग गोल गोल चलते थे
झुंड़ से बाहर आना
उनके लिये मुमकीन ना था
किताबों में ऐसा ही लिखा था
और युग यूँ ही बीत गया था

बच्चों को कोलाहल रहस्य लगता
मुठ्ठियों में उत्साह लिये 
वे बड़ा होना चाहते थे
हलांकि जिंदगी
सबसे अलग अलग लिबास में मिलती थी

प्रकाश के ऊपर
ज्ञान की स्याही पोती गई थी
जो जितना ही समझना चाहता
उतना ही उलझता रेशमी घागों के बीच

रस्सियाँ बांध दी गई थी
चलना शेष
और उतरने के लिये
बुद्ध होना जरूरी था !!

लिबास

लिबास फिर उतर गया
एक और दिन ढ़ल गया 

शाम से विदा लिया
भोर फिर बिकल हुआ
नयी सुबह फिर हुई

पहचान फिर बदल गया
कहाँ कहाँ खोजूं तुझे
तपिश भरी दोपहरी में
सफ़र को फिर निकल पड़े
मंजिल की प्यास लिये

धूप छांव घना कही
उम्मीद बड़ी है रात नई 
वह सुबह कभी तो आयेगी !!

मोह की क्षणभंगुरता में

वीरानें में लटकती सांसों को
घुंघरू की तरह प्रतिध्वनित होना था 
जिंदगी दो चार कदम पर
गहरी कुआँ थी

वक्त बेवक्त नमी सूखती रही 
प्यास प्याउ पर बिखरी
तन्हाई को टटोलती रही

सन्नाटे गहराते रहे
असंख्य यादों से विदा लेते वक्त
आंखों को शुन्य में छोड़ना
विवशता रही सांसों की

आना और जाना 
अकेले रास्तों का सफ़र था
फिर भी रिश्तों की जिस्म पर
मोह की क्षणभंगुरता में
सांस-सांस मरते देखना
जीजिविषा प्राण की रही    

आत्मगत से वस्तुगत
हो जाना ही सत्य था !!

बनी दुनियाँ तब खुशबू बहुत थी

बिखरना
नसीब फूलों का
माली नही वे कि सँवार देंगें
हौसलों को उड़ान देंगें

मंझधार में
छोड़ रहे कस्तियों को
बुझाते रहें रौशनी
टटोलते हुये अंधेरों को

बाबूल से
बबुल हुये वे कब
कंटीली ढाँचों के बीच 
बसा फूल का शहर  

बनी दुनिया तब 
खुशबू बहुत थी !

रंग बिरंगें पंखों से

उन परिंदों को देखा
जो आकाश
नाप लेना चाहते थे
रंग बिरंगे पंखों से

पर मासूम परिंदों को
एहसास ना था कि
नीले आसमान में सुराख है
और वे विलुप्त हो जायेंगे
एकदिन

ओ नीली छतरी वाले
रहस्य को तोड़ दे
मासूम परिंदों की उडान को
सतरंगी बना !

उम्मीद से है दरख़्त अब

ठहरा हुआ आसमान
गहराती हुई पृथ्वी
सबकुछ बिखरता हुआ 

पिघलता हुआ बर्फ
हम कहाँ और कैसे ठहरे
सवाल ही रहा

ऐसी उफान नदियों में कि
सूखती रही उम्मीद 
लहरों के संग 

जंग में सियासत या
सियासत में जंग
बदल रहा है सबकुछ
अपने धूरी पर  

आसमान नीला रहे और
उडान मिलें परिंदो को
उम्मीद से है दरख्त अब !!

मुश्किल बस इतना सा

मुश्किलों से खेलता 
रोता बच्चों की तरह 
दिखता
उसके आंखो में खुदा 
मानो वह बचपन का
छूटा कोई ख्याल   

मुश्किल यह है कि
मुश्किल में सख्त नही वह 
पर उम्र और समय से परे 
बहुत आसान 
क्योंकि बुध्दिजीवी है
वह जी लेता हैं सबकुछ 
पता है उसे
चाहता क्या है

चाहत उसकी
बंद मुठ्ठियों में खुला आसमान 
जिसपर खींच रखी है उसने
चंद लकीरें ख्वाहिशों की 
इंद्रधनुषी
सूरज मद्धम नही होता उन रंगों की

मुश्किल बस इतना सा कि
ख्वाब उसका अपना सा है
जो सोने नही देता !!  

मिठ्ठे मासूम मुस्कानों के पीछे से

बच्चों के पैरो में बेबसी के
कोयले पोते जाते रहे
दूसरे किनारें पर लटकता सूरज 
सुबह सुबह भूख उगाता रहा 
पीने के लिये कीटनाशक मिलते
इतनी सडकें सख्त की चलना उसपर
मुश्किल तरीका बनता गया

भूले भटके लोंगो की तदाद इतनी
कि भीड में
आंखे अपनी पैर तलाशती
रातें ग़ीली होती थी और सपनें
घरो में टंगे सूखते मिलते
हाँथ कोसो दूर बंजर जमीन कोडती
और पेट भर भूख निकलता 

गरजते बादल उमड घुमड के
कही और बरसते रहे
बिजलियाँ उनके कलेजे पर गिरती रही
दीवारें प्यासी ही ढहती गयी
मायूसियों में खामोशी की नुकीली दांत
नोंचते हुये गरीबी को आंख दिखाती रही 

रौशनदान से एक गौरैया रोज आती
और एक तिनके से
घर को घर बनाती
आज महीनों बाद भी वह डूबा मिला
और शाम की तरह
मायूसी की चादर लपेटे हुये खामोश रहा  

फूल जैसे सबसे सुंदर बच्चे कोयले की खादानों के
अंतर तल पर उसके इंतजार में 
एक मूँठी प्यार लिये उसे पुकारते रहे
सबसे मिठ्ठी मासूम मुस्कानों के पीछे से
जरूर आयेगा वह
उनकी कविता लौटाने  !!

जंगलवाद के वितान पर

कुर्सियों के बीच
जमघट पत्थरों की थी
विस्फोटकतंत्र था शहर 
गाँव उदास जलता रहा
पगडंडियों से
पदचिन्हें विलुप्त होने लगी थी

जंगलवाद के वितान पर
जंगल लुप्त
चीख पुकार से
वे भयभित नही थे
उनका नया शौक था 
शिगार फुकते हुये
नसलो को धुँआ में उडाना

वे आभागे लोग थे
जिनके पास घुमती गोल पृथ्वी नही थी
उनका लौटना किसी सुबह हो सके !!
 

वही जहाँ तुम्हारा आना जाना है

कौन से कोने में
छुपाऊ
सफेद कबूतरों को 
रह सके, सफेद
और बदले नही
उनकी दुनिया
ऐसा मुकम्मल जहाँ
कहाँ से लाऊँ

भोर के होते ही
घण्टालो के बीच
दब जाती है सुहानी सुबह
शोर के साथ 
दिन की शुरुआत
रास्तो पर बिखर जाती है
मासूम हंसी
और
कुचलते जाते हैं
निर्मम पैर

उन्हें पता है कि
तपिश क्या होती है
पर क्या करे
सूरज थोडा और गर्म होता जाता है

सोचती हूँ एक सूराख बनाऊ
हिमखण्डो के बीच
कंचनजंघा पर रख उन्हें
सौप दूँ तुम्हारे विशाल आगोश में
और सो जाऊ एक गहरी नींद
वही
जहाँ तुम्हारा आना जाना है !! 

चिराग‌‌ यूँ ही नही जला करते

 1.

छोटे तारे रोज देखते है
अपने अनंत आकाश से
चाँद के आगोश में
संवरते है रोज
फिर भी
टुटकर बिखर जाते है
मिट्टी की
सौंधी खुशबू की चाहत में !!

2.

चिराग यूँ ही नही जला करते
अंधेरे से दोस्ती रही होगी कभी !!

3.

बाजार एक सपना है
नये परिंदों के लिये
घोंसलों को मिटाया जा रहा है
चाँदी के चंद टूकडो के लिये !

4.

जाने वो कौन से मकाँ थे
टूटते चले गये
बिखरे गहन सन्नाटों के बीच
आज भी
इबारते जिंदा है और
उपजते है ख्वाब
किताबो की जमीन पर !!

5.

डाल डाल गया
पात पात डोला
परिंदें की चाहत रही
छाँव
पर वह बरगद ना मिला
जिसकी लटों से
भरी दोपहरी में
शीतलता टपकती थी !!

6.

इतना बरसा बादल कि
समंदर भी स्याही से
कुछ लिखता मिला !!

7.

साहिल पर आकर
कश्तियों का
डुबना भी खुब था !!

8.

 बचे रहने के लिये
जरूरी था कि
सबुत के तौर पर
सांसो की चीरफाड़ हो
और मुश्किल था
साबूत बच पाना !!

9.

मिटा मिटा के लिखना
और मिट मिट कर लिखना
कैसी दुश्वारियाँ है सांसो की !!

10.

एक जमीन हमनें ना बनाई
एक आकाश तूने ना बनाई
रिश्तों के सर जमीन पर
वे कौन से मकान थे
जो बनते चले गये !!
 

मिट्टी में कैद खुशबू

1.
शब्दो के हंस
झील में कबसे से है
कुछ ठीक ठीक याद नही !!

2.

गमों को कुछ
यूँ दफनाया
कि
किताब में खिलकर
फूल हुआ !

3.

किनारो की बेबसी ऐसी
कि
तुफानो को समेटे हुये है !

4.

रात की स्याही
बढती जाये
सुबह का बादल
जमते जाये
सपनो के तारे बिखरे पडे हैं
पर
आस का चाँद
डुब ना पाये !

5.

तपिश बढती रही
जिंदगी की नमी को
बादल ने चुरा लिया था !

6.

एक दीवार थी कही
गिरा दिया उसने
जिंदगी से भरी
रौशन शब्दों से
रु-ब-रु होती रही !

7.

चिंटियाँ जमीन को
खोंखला करती रही
सुबह सुबकती रही
समंदर उफनता रहा
खोखली जमीन पर
भुकम्प के झटके लगते रहे
दीवारें दरकने लगी है अब !

रौशन रहे तू

दीपक की तरह
रौशन रहे तू
गहरे अंधकार पर
तेरी जीत ही लहराये

जले तू इस तरह कि
तेरे करीब से
वह कोसो दूर नजर आये

जल जाये रात सारी
तेरी इक टिमटीमाहट में
उग जाय एक सूरज
और नया सबेरा हो !

अकाल के वास्ते

बंजर जमीन के वास्ते
बारिश के आसार में
तालाब खोदा जा रहा था
ताकि डुबने तक
पानी भरा जा सके

तालाब से निकली मिट्टी को
धंसी रास्तो पर डाला जा रहा था
रास्तो की गहराई को
भरने की कोशिश में
उनके ऊपर
छूट चुके पदचिन्हों को भी
साथ ही साथ दफनाया जा रहा था

अकाल के कारण
शरीर डुबने भर को
तालाब खोदा जा रहा था  !!
================

सुबह सबेरे दो-चार कदम की दूरी पर

सुबह-सुबह दो चार सौ कदम की
दूरी पर
मडई में बच्चों को
चहकते देखा
सभी के सभी
एक एक लत्ते में थे

आंखे कदमो से
कई गुन्नी रफ्तार में चल रही थी
धुँआ पहाडो में खो रहा था
हर पचास कदम पर
मिट्टी से बने
घरों के दरवाजे खुले और 
अलग अलग रंगो के चित्र झलकते मिले
पर गरीबी का एक ही रंग था वहाँ

लोग ऐसे जैसे पहाड हो गये हो
आंखे स्थिर चित शांत
पेट में धंसी आंते
भूख से जलने का संकेत देते हुये
शरीर पर गुफानुमा आकार लिये हुये थी 

बच्चे ऐसे जैसे उन्हे
रोना कभी आया ही ना हो
आसपास की चीजो को
ऐसे देखते वे
जैसे वे गहन मौन में हो

माँ की गतिविधियों पर
नजरे ऐसे टिकाये जैसे
जिंदगी की गति को देख रहे हो
और वहाँ से गुजरते हुये 
उनके परिवक्व आंखो में
बचपन कही नही दिखा

सारी बचपना वहाँ के
जानवरों ने हथिया रखी थी
वे झुमते गाते गुरार्ते दिखे
कदमों की आहट पर
खमखाह शहरी आंखे डरती रही
गाँव तो उन्हें अपने
स्पर्श में बिखरते देख रहा था
एक आध कुत्ते भौंक रहे थे
साथ ही साथ चौक भी रहे थे

उछ्लते कुदते कुत्ते तो
वो स्पर्श दे गये जैसे मानो
सदियों से पहचान रहे हो
और मिलना अचानक
एक उत्सव बन गया हो

समय ऐसे मिला वहाँ
जैसे मूँह की खाये बैठा हो
औरतें मानो उसे
पानी के साथ घडों में भरती है
सुबह सबेरे और
भूख की आंच पर
चूल्हें पर पकाती है
बडे चाव से 

फटे कपडो में लिपटी
औरतें ऐसे दीखती
मानो सुनसान आसमान के
आगोश में 
चाँद के ऊपर 
बिखरे बादल लिपट पडे हो

ओंस में सनी जमीन  
जीवन घास थी वहाँ 
जिनका लहलहाना
हरा कम होना था
और सुखना
पीला ज्यादा  !!


आसमान धुआँ-धुआँ सा

खडखडाती हुई पत्तियाँ
मन भागता हुआ कोसो दूर
नदियों ,झीलो, सागर सब से

जगह जगह पर
रोते बिलखते
भूख से
मासूम बच्चें

आसमान धूआँ से भरा हुआ
जल रही है इंसानियत कही
राजनीति की आंच
कहे या
भूखे मन का तांडव

खाक होने पर भी
सुलग रही है जिंदगी यहाँ
वे है कि घात लगाये बैठे है
और उनके एहसास में
तितलियाँ उड रही है हर कही

जंगल है खुंखार जानवरों से भरा पडा
हम है कि खुशबू तलाशते है
जीना सिखते है
आर पार की कहानी पर

नाखूनों के बीच बच्चों की किलकारियाँ
बौराई आंखो में पलती उनकी बेटियाँ
कोठियाँ
ना जाने कितने दिनो की ताताथईयाँ

वह बहुत याद आता है
दूर किसी पहाड पर बैठे परिंदे को
जब बच्चों सा रोता है
उनके बच्चों के लिये !!

सांसों में घुली रेखायें

आड़ी और तिरछी रेखाओं के बीच 
कुछ रेखायें सामानांतर भी चलती है
कहीं  तक जाती हुई
वे जोडती है
समानांतर चल रही रेखाओ को
जुटना और टुटना भी पडता है
कई बार इनके गणित में फंसकर 

अब क्या कहें किसे कहें
हर जगह पर है आड़ी तिरछी रेखायें
जिसमें फंसे हुये विवश महीन धागें 
हवा अब सांस लेने की कला से आती है

सीधी और सरल चलने वाली रेखायें
फंस जाती है अक्सर
अनसुलझी रेखाओ के वक्राकार के बीच
फंसी सांसे और उलझी रेखायें 
निहारती है आसमान घण्टों
शायद वह टपके और डूब जाये

ऐसा कुछ नही होता जिससे वे
अपने गहन पीड़ा से बाहर आ सके
जब तक सांस चलेगी  
आसमान शांत स्थिर
और अविचलित मुद्रा में
निहारता रहेगा उन्हें वर्षो

दूर बैठें शाख पर एक परिंदा
उड जाता हो महीन धागों से परे 
बेबस असहाय और निरीह छोड़कर
तब अपने दर्द में डूबते हो खोजते हुये
कुछ गांठें जिन्हें खोल दिये जाने से
पृथ्वी का हरा होना तय हो

बरबस बरसती है अश्क 
बहने लगती है नदियाँ
समानांतर रेखाओ के बीच !!

ये जिंदगी भी न

कहते कहते कुछ
बेआवाज हो जाती है 
तब उड़ती चिडियों को
देखने लगती है एकटक
फिर उंगलियों को चेहरे पर फिराती है
और गीले होने के एहसास से
होठो को  चौड़ाकर
एक उदास मुस्कान
छोड देती है कई जोडी आंखो के बीच

इसतरह कुछ
सुबह से शाम तक के टिक टिक पर
जिंदगी की कढ़हाई में पकती है लगातार
घण्टों,दिनों,महीनों और सालों
तब कहीं वह परिपक्व होती है

छोटी छोटी बातों को निगलते हुये
और बड़ी बातों से फटी चादर को सिलते हुये
निकलना होता है रोज
मंजिल तय करने के वास्ते
पहचाने चेंहरो के बीच
अंजाने सफ़र पर
ये जिंदगी भी न !!

क्षणिकायें

        1.

समंदर है गर किनारे
तैरने का हुन्नर आ जाये
तो अच्छा  !!
          
       2.

जंगलों को मिटाना
बदलने लगा है दस्तूर
जिंदगी की
साँप अब लोटते है
दरवाजों पर !!
          
      3.

फूल मिटाने की
कवायद
तेज कर दी उन्होंने ने
जिन्हें खुशबू से परहेज नही
कांटे हवाओ में बिखर गये
सांसो की खैर नही अब  !!
         
          4.

रोज़ सुबह चिडियों का
चहकना कम होता जाता है 
घोंसलें अब सुरक्षित नही रहे !!
         
         5.

वो नही कहते
कभी कि गैर हो
पर
जब भी मिलते है
मूँह फेर लेते है !!

रोटी की गोल बाहों में सिमटें हुये है सब

रोटी की तरह गोल
दुख में
घुम रहे है कई तरह से वे
कोई सेकता है मानो
घण्टों रोटी

ठंढे चुल्हें पर
भुख भरने को
सिकती रही रोटी 
खाली डब्बे जैसा पेट में
जलती रही गोल गोल रोटी

गरम तावे पर चाँद सा
दिखता रोटी
चाँदी के कटोरे से
छलकता सपना
रोटी

बच्चों के ख्वाब में
दूध-भात लाता
गोल गोल मामा उजली रोटी
सुबह का सूरज
आस का गोला
रोटी

पत्थर तोडती माँ के
हाथों से रिसती
गोल रोटी
सडक के किनारे सोते बच्चों की
गोल आंखो से
टपकती रोटी
धूल से सनी
फटी आंचल में छुपी
ममता में डुबी गोल रोटी 

भूख के समंदर में
डुबता सूरज 
गोल रोटी
रात की गहराई में
लहरों की अंगडाई पर
मचलती फिर
वही रोटी!!!

उसके सीने की गहराई में

पिघलते और ठिठुरते पहाड
बडे अच्छे लगते 
उनका पिघलना इसलिये कि
वे विशाल होते ह्र्दय से
ठिठुरना उनका
प्रतिनिधित्व करता आम आदमी का

पहाड था जहाँ उसका पुर्नजन्म हुआ था
नितांत अकेला ,नि:शब्द,शुन्य पर ठहरा
चेहरे का सवाल ही न था
पहाड था और युग धाराशायी सामने उसके 

कई मौसम एक साथ
साथ साथ चले
गहरे पहाडी में उतरते हुये
जब सुरंगमई आवाज़
दोंनों के बीच गहराने लगी थी
चीखती सन्नाटों के बीच
थामना उसका हाथ
हिमखण्डों का एक साथ
कई विशाकाय आकार में जम जाना था

ऊंचाई उसका निराकार
जन्म लेने लगी
उडते भागते शब्दों और अक्षरों में
दरअसल वह ठंडी हवाओं के साथ
पर लगाकर उडती और
शिखर से वह चीर और धीर
अचल देखता उसे

सूरज की तपिश से जब वह पिघलता
परिंदें बेशुमार उडतें
उसके दर्द के गवाह होते
ठंडी हवायें उसके गले लग जमनें लगती
वह बेजुबान और निराकार इतना अपना था कि
उसे पता ही ना था कि
बर्फ का एक छोटा टुकडा
उसके सीने के गहराई में छुपा बैठा है
जो पिघलता और ठिठुरता है मौसमों के साथ साथ !!

जो हासिये पर नही जीते

दरअसल वह आसमान की आंख से
विसंगतियों पर पत्थर की तरह चोट करता
ऐसा जब जब करता था यकीन मानो
दोंनों जहाँ धुँआ धुँआ होता था  

उतना ही पढा उसने
जितना उसने सपनों को बुना था
जल में बनें महल की तरह लिखता  
बुलबुले की तरह आसपास बिखरता
छुते ही इंद्रधनुषी होता चमकता सतरंगी 

परिकथाओं से दूर कही
पहाडों की खोह में रहने वाले बच्चों की
दस्तान से भरी गीतों में सुरमई धुन हो
लकीरों से झांकती आंखों की चित्र खिंचता 
जड-जमीन को खोदता और कुछ सूखी जडें निकालता
बढता जाता सात समन्दर  

चाय की दुकानों पर काम करने वाले
छोटूओं के माँ-बाप पैदाईशी ही लुले-लंगडे होते  
उनके घरों में भूख सेंकने के लिये
हाथ पैदा करना होता था काम
और कच्ची उम्र का मेहतना
पेट की आग पर पानी बन बरसता
ऐसे में वह रुई से पानी निचोंडता 
रुखे और सूखे दर्द पर फेरता हाथ कुछ ऐसे कि
गंगा भी हिमालय से फुट पडती
जो आजकल सूखी पडी है कही

संस्कार दुनिया का
तोता बनाना
और भेंड चालवाले पिंजडों में कैद करना 
तोतों को
है ना मुनाफे का सौदा
जो हासियें पर नही जीते
उन्हें पिंजडो का सौदा करना अच्छी तरह आता !!

गर जल गया कोई दीया तो मशाल बन जायेगा

तू बदल दे
चाहे अपनी जुबान
चिराग जलाये बैठे है
लौटना होगा उन्हें
हर हाल में
सूरज
शब्द शब्द कविता में
सुबह बन उग जायेगा 

मासूमों की चीख को
तू चाहे अनसूना रख
अब तो जर्रे जर्रे से कोई
इन्कलाब का मंत्र गुंजेगा 

एक अंधेरा हर तरफ
खोने का सबब बना रहा
घने जंगलो की बीच से ही
कोई आग जलेगी

अंधेरा घना
आस का दीपक
टिमटिमाता हुआ
सच है कि तू
मिशाल बन जायेगा

पत्थरों पर टुटते 
हाथ मासूमों की
तपिशभरी तेरी कविता से
पहाड
मोम की तरह पिघल जायेगा

गर जल गया कोई दीया
तो मशाल बन जायेगा !!

यह प्रेम ही तो है

यह प्रकृति का
प्रेम ही है कि
शाम
मंदिर और मस्जिद पर
समान रौशनी से आती है

रात भी दोनो को
साथ साथ गहरे उतारती है
चाँद
दोनो का एक ही होता है
तारो से भरे आसमान को
दोनो साथ साथ ओठते है

सुबह का सूरज भी एक ही होता है
और इसतरह सबको एक-दूसरे जोडती है



एक मुठ्ठी धूप में सूरज तन्हा

एक मुठ्ठी धूप में
सूरज तन्हा
आसमानी कंचन-किरणवाला
सबेरा
सूरजमुखी जैसा

ठंडी हवाओं में
पत्तियों की सरसराहट से होकर
गुजरती सांसे
बेआवाज
सन्नाटों पर फैला
पानी सा इक छुअन

पलकों पर सोया समंदर
और उसके गहराई में
डुबता नीला आसमान
तारों से सजी रात
तन्हाई से बचाती हुई चाँद को
टांकते जाती शब्दो से
रौंशन मुखडा को
टिमटिमाते अक्षरों से

वक्त के हाँडी मे
पकता महीन सेवईयाँ
जिसे हमसब को खाना होता है
खींच-खींचकर
पर दूँज की तरह मीठा नही होता

बेरोक-टोक चलती है घडियाँ
जिसके ऊपर
घोडे भी दौडते है
पर बिना लगाम
वे माँ की हाथ के तरह
खुबसूरत नही होते !!

कुछ सामान था जो सफ़र में छूट गये कही

शाम के धुंधलके में
उसने परिंदो को सिद्दत से देखा
सभी लौट रहे थे
बदलियों के पीछे से आती लाल रौशनी
रातरानी से लिपट रही थी

झरने के सुमधूर लय ताल के साथ
कई-कई नदियाँ एक साथ बहे जा रही थी
आसमान मुस्कुराते हुये
तारों को एक एक कर
चांदनी के आंचल पर टांकता जा रहा था
चांद सागर से मिलन की चाह लिये
छ्लकता रहा रातभर

उसने जमीन और आसमान को
आंखो में कैद कर लिया
गोल मोतियों को
दफन कर पृथ्वी के सीने में
हरी घासों में लहलहाती रहीं वह
हिरणों के नन्हें पाँव कोमल जो थे

सूरज उसके अर्श और फ़र्श  में
कही खो सा गया था
कुछ सामान थे जो
सफ़र में छुट गये कही !!

भटकन है जहाँ

रास्तें दो थे
कौन था वह जिसनें
हमारी पहली सांस को रास्ता दिया
जिसपर चलते हुये सांसो ने  
कदम बढाना
और बढना सीखा

पर रास्तों के दोहराव ने
युग-युगांतर की
भटकन को साश्वत करार दिया
उन रास्तों पर दुबारा लौटना संभव ना था
भटकना तय था

उन पगडंडियों को किसने मिटाया
जहाँ सौंधी मिट्टी की खुशबू थी !!

साथ जो मिलता उन्हें

चलते रहे बहुत मगर
मंजिल का साथ ना मिला

सुखनसाज़  बहुत बजते रहे
पर करारे-सुकून ना मिला

तख्तों ताज़ पर बैठे रहे वो
पर वादों पर फूलों सा चमन ना मिला

मिलती जो उन्हे इक खुशी चाँद सा
चाँदनी को , पर बादलो का साथ ना मिला

पहाड हर तरफ रहे पिघल भी जाते
मगर उगते सूरज का, इन्हें साथ ना मिला

जलती रही चिरागें-मोहब्बत बहुत
गुजरते वक्त में उम्र का साथ ना मिला

क्या खो के वे ताकीद कर रहे है
सूना है कि उन्हें अपनों का साथ ना मिला

भींग भी जाते और बरस भी, वो मगर
बादलों को हवा का साथ ना मिला !!

मुमकीन हो सफ़र

बहुत सुंदर है किताब फूलो की
बदल दी है हिसाब वसूलो की

मुमकिन हो हर सवाल मासूमों की
बात गुलाब की हो ना कि कांटो की

रौशन हो शहर आओ बात करे फरीस्तो की
आ जाओ कि आसान हो दौर मुश्किलों की

छु लो कि मुकम्मल हो आसान हो सफर रातों का 
गुफ्तगू में रही वो कह दो कोई नज्म होंठों की

अनकही अनछुई और अनदेखी रही सब की
अब न रहो चुप कि कह दो हर बात रकीबों की   !!

ना 'मैं' में कोई आग था

गमों से गमों की बात हुई
ना तुमने कहा ना मैंने सुना 

रुत बदल बदल गई
ना मुझे दिखा ना तुझे दिखा

बहार गुनगुनाने लगी
ना तुम हंसे ना मै हंसी

चमन में फूल खुब खिलें
ना तुनें छुआ ना मैंने छुआ

रात खुब रौशन रही
ना मै जली ना तुम जले

खुब डुबा भी आसमान
ना मै भींगी ना तुम भींगें

नींद ख्वाब ख्वाब चली
ना तुम सोये ना मै सोयी

उम्र की सांझ भी ढल गई
ना मैंने जिया ना तुमने जिया

ना 'मै' में कोई आग था
ना 'तुम' में कोई शबाब था

हुआ जो था गज़ब हुआ
धरा-गगन के बीच हुआ !!

डुबती गई इंच इंच

इंच इंच करके
मुस्कान खोता गया
समंदर में
सूरज रोज कुछ
और ज्यादा भारी होता गया
सुबह के कंधो पर

साहिल काटता रहा उठती लहरों को
इसतरह समंदर गुमसुम रहा
कई कई दिनो तक
उसने समेट रखी थी आंखो की नमी
आंचल में
रात जब भी अकेली हुई
ओढती रही और भींगती रही

कुछ इसतरह
पिघलती रही हिमखंड की
वह बदली कि
आसमान धडकनो में सिमटा रहा
टूटते तारो के संग बिखरता रहा

समंदर स्याही की रहा
लिखने के पहले वह डुबती गई
लकीरो में इंच इंच !

तब होगी मुकम्मल

आह की तीर से
धायल पृथ्वी के लब पर
जब एक मुस्कान रिसेगी
तब एक कविता मुकम्मल बनेगी

दर्द के नीर में
आस की प्यास से 
जब एक नाव चलेगी
तब एक कविता मुकम्मल बनेगी

बंद दिलो के दरवाजो पर
राग और विराग से कोई दस्तक
नई धुन छेडेगी
तब एक कविता मुकम्मल बनेगी

नष्ट होते जंगलो में
ठूंठ दरख्तों पर
चिडियों के चहकने से
जब कोई सूरज निकलेगा
तब एक कविता मुकम्मल बनेगी

सूनी आंखो की
सूख गई पुतलियों में
जब अश्क उम्मीद बनकर तैरेंगें
तब एक कविता मुकम्मल बनेगी !!

वह नदी रही पर सूखी रही

यादो के निर्मल झरनें में बहती रही
जाने किस किस लम्हो में
वह नदी रही पर सूखी रही

बहती रही उफनती रही
कलकल  हुई छल छल बनी
वह नदी रही पर सूखी रही

सुनहरी हुई सौंधी बही
सूरज डुबा मद्धम शाम हुई
वह नदी रही पर सूखी रही

गुजरती रही हरीभरी हुई
शांत लहरे तन्हा रातें रेंत हुई
वह नदी रही पर सूखी रही

गाती चली सुमधुर बही शीतल हुई
लहर लहर मचल मचल
वह नदी रही पर सूखी रही !!

आशा टिमटिमाती रही

कई आंखे निकल आयी थी 
तस्वीरों में
पर कमरा भरा था अंधेरो से
जुगनूये माँ बन गयी थी आंखो की
घुप अंधेरा गहरा रहा 
पर आशा टिमटिमाती रही 
बंद कमरो में और
आत्मा अंधेरो मे
प्रदिप्त थी
ऊँमकार स्वरूप !!

बदलते तहजीब की नयी अंदाज

हिमालय से हो या
शिव जी की जट्टा से
गंगा की तरह
एक पवित्र भेंट है
कविता

ख्वाहिशों के बीच
एहसास की भटकन में
कोई नई धून है 
कविता

कांटो के बीच खिले हुये
फूल से
महकती कोई चमन  है
कविता 

कीचड के कोख में
सुबह-सवेरे  खिलता
एक कमल है
कविता

जानवरो के बीच
कस्तुरी के लिये भटकता
कोई नन्हा मृग है
कविता

बदलते तहजीब की
नई अंदाज़ है 
कविता !!

भूख हो कविता

लिख दो वह सब
जहाँ भूख ना जलती हो
मन की आग पर

भूख हो
एक कविता
जिसे सुबह शाम पढी जाये

जिसे कमाने निकले
सुबह को
लौटना हो जिसपर
सांझ को

सकून से सोये
रात को
गर्वांवित होये कविता !!

अय हवा बारिश कर दे पत्तियों की

सरकार की आडी तिरछी नजरें
जला रही हैं बस्तियाँ
खेतों की मेहनत खाक होती रही है
गोदामों में
इस पर जश्न रही है गिध्दों की  
पगडंडियाँ शहर बनती जा रही है

हर तरफ फैला हुआ है दूर दूर तक
जंगलो के ठीक बीचो-बीच
सूखी और दरकी दुनिया बनी हुई है
बेबस और लाचार मौन की
विवशता पर स्याह रातें फैली हुई है 
 
गुजरती शाम घने अंधेरे जंगलो से 
सूरज भी कही दूर डूबता रहा है
पत्थरों के साये में मासूम हिरणें
रस्सियों के बीच सांसे ले रही हैं 

अय हवा बारिश कर दे पत्तियों की
जंगलो के बीच तपिश पसरी पडी  है
और दरकी हुई दुनिया को थोडी कम कर दे !!

हम आसमान पर नही तो धरती पर....?

जमीन से निकलनेवाले
पेड-पौधो,कीडे-मकौडो की
कही कोई बात नही होती

कहाँ से आती है हरियाली और
कहाँ कहाँ है सुंदरतम चीजे
इसकी जानकारी कही कोई नही होती  

रोज धरती अपने जगह से
थोडा थोडा खिसक रही है
कही कोई चर्चा नही 

आसमान भी हररोज
थोडा कम नीला हो जाता है
इतनी बडी घटना पर भी 
रात की गहराई नही मापी जाती

रिश्तो में खुन कम
पानी ज्यादा भरने लगा है
और इसकद्र रोज थोडा
यह भी मरने लगा है

सभी भाग रहे वक्त की तरह
बिना सोचे 
परिवर्तन हमें किसी विनाश की संकेत दे रहे
पर
अनुमान लगाने से भी परहेज क्यो है
हम आसमान पर नही तो
धरती पर क्यो है ?

जरूर एक कविता हो

जलती हुई होनी चाहिये
एक कविता
भूख की आग की तरह
जिसमे जले एक एक अक्षर
विषमता के
खाक हो विषम धारणाये
जरूर एक कविता हो 

अन्न से पैदा हो उर्जा
और गरीबी लाठी टेकना छोडे
विषम लपट में 
मरने और मिटने वालो पर  
जरुर एक कविता हो  

बंजर जमीन पर जख्म रिसते रहे  
धोखा फलते और फुलते रहे 
कांटो के अततायी चूभन पर
जरुर एक कविता हो

बढ रहे नाखूनो के
काटने के सही तरीको पर और
उनके उंगलियो से बचा लिये गये
मासूमो के खुशी पर
जरुर एक कविता हो

बंदरो की टोली में 
नन्हें मासूम बिलखते रहे 
रिश्तो की गर्मी जो खोते रहे 
उनके अरमानो को सवारने पर
जरुर एक कविता हो

पत्थर तोडती माँओ के
पूरे दिन के कमाई में भूख एक बिवाई रही
गरीबी के जिस्म पर 
तार तार आंचल में
उनके चाँद-तारो के पेट ना भर पाने पर 
जरुर एक कविता हो  !!

मौत है भाषा की


कहते है जनतंत्र
उसके बाद जन-गण-मन
लोग आजादी पाकर आजाद थे
विश्राम की मुद्रा में
थकान थी शायद इसलिये
जिन्हें जाना था, 'हे राम' कह
वह चले भी गये

देश अब भूखे हाथों में थी
और हम सब चीर निंद्रा में
रात जगे के बाद की नींद जो थी
माँ के कलेजे को गोली से
छलनी किया
पर सुराख दो ही बना
लहूलूहान हाथो से लिखा गया
आर और पार
महत्वकांक्षी किस्म की नसल थी
जिनको पाक़ चाहिये था

एक पवित्रग्रंथ में कानून लिखा गया
पर आहुति में कानून ही डालें गये
जली गरीबी
लोभी हाथो को ढँके गये
इंसाफ की आंखो को इसतरह की
अन्याय बढती नसलों को लीलती गई

विस्फोट हुआ चींटियों का
और चाट रहे है तलवे अबतक
कट रहे है भेड-बकरियों सी
निहायत जरुरी चीजे
जल रही है भूख 
और बदहवास आंखे लाचार

चीन की दीवार बनी खडी रही 
जनता और नीति के बीच के सम्बंध
और सताधीन हुये शहंशाहे-आलम
पाँव से लगकर बैठी रही कानून
पंडितो के पंडिताई पर ही डोलती रही कानून
और तबसे ताशे और ढोल पिटे जाते रहे 
शायद नींद टुटे

रोते हुये सवाल
दफन होते शब्द
हर तरफ
मौत है भाषा की
गुंगे बहरो की परम्परा में
आज हर एक चीज एक तरफा  है

क्षेत्रवादी संस्कार आज दानवी रुप में 
विघटन का मंत्र पढा रहे है
भूखे हाथों की षणयंत्र है
जो फैला रहे  है हर तरफ असमानतायें
खा रहे है मानवियता
क्या आज भी हम आजाद है
भ्रष्टाचार के दावन के बीच !!

तेरा उगना और डूबना

सुबह से शाम हुई
कलरव में
देखते हुये
तुझें 

कई शाम
कंधो पर
लेकर बैठी है जो
आसमान
ओंस की मानिंद
काटी है यादें

कोई सीप
तुझ सा ना मिला
कि बन जायें
मोती

लहरों की
साजिश में
लौट जाता है वक्त  
किनारों से
ठोकर खाकर 

किनारे देखती रही हैं तुम्हें
सुबह और शाम में
उगते और डूबतें !! 

जनतंत्र है बंधू

हर किस्म के फुल खिला करते है
चमन में खुशबू से ज्यादा
कांटे ही मिला करते है

ना हो उदास यहाँ
कही भी और
किसी भी भेष में
नारयण मिला करते है

जोश में यहाँ जहान कई खोते है
झंडे के पीछे
जीने के कई फंडे है

भेद भाव के नीति पर
जमीन और भाषा के बीच यहाँ
अजीबो-गरीब घमासान

लहलहाती कुर्सियों पर
सता के खेल है और
गरीबी में जलती पेट है

जनतंत्र है बंधू !!

यकीन ना था

तुम आओगे
और भींगना होगा
इस इसकद्र
यकीन ना था

धीमी
और उल्झी सांसो में
आग होगी
यकीन ना था

दस्तक हुई
दरवाजे पर और
धडकने होंगी
यकीन ना था

एहसास के आसमान पर   
शब्दो के गिरह खुल जायेंगे
हौले से
यकीन ना था

वक्त देखते ही देखते
कुछ यूँ बदल जायेगा
यकीन ना था

बंद किवाडो के बीच 
निगाहें सजदे में होगी
यकीन ना था

तू आये या ना आये
कदमो का चलना होगा
अब कांटो पर 
यकीन ना था !!