डुबती गई इंच इंच

इंच इंच करके
मुस्कान खोता गया
समंदर में
सूरज रोज कुछ
और ज्यादा भारी होता गया
सुबह के कंधो पर

साहिल काटता रहा उठती लहरों को
इसतरह समंदर गुमसुम रहा
कई कई दिनो तक
उसने समेट रखी थी आंखो की नमी
आंचल में
रात जब भी अकेली हुई
ओढती रही और भींगती रही

कुछ इसतरह
पिघलती रही हिमखंड की
वह बदली कि
आसमान धडकनो में सिमटा रहा
टूटते तारो के संग बिखरता रहा

समंदर स्याही की रहा
लिखने के पहले वह डुबती गई
लकीरो में इंच इंच !

7 comments:

  1. बहुत खूब कहा है आपने ।

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  2. समंदर स्याही की रहा
    लिखने के पहले वह डुबती गई
    लकीरो में इंच इंच

    अति सुन्दर !

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  3. बेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
    अभिव्यक्ति.....

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  4. बेहतरीन अभिव्‍यक्ति।

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  5. बहुत सुन्दर रचना भावयुक्त

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