ये जिंदगी भी न

कहते कहते कुछ
बेआवाज हो जाती है 
तब उड़ती चिडियों को
देखने लगती है एकटक
फिर उंगलियों को चेहरे पर फिराती है
और गीले होने के एहसास से
होठो को  चौड़ाकर
एक उदास मुस्कान
छोड देती है कई जोडी आंखो के बीच

इसतरह कुछ
सुबह से शाम तक के टिक टिक पर
जिंदगी की कढ़हाई में पकती है लगातार
घण्टों,दिनों,महीनों और सालों
तब कहीं वह परिपक्व होती है

छोटी छोटी बातों को निगलते हुये
और बड़ी बातों से फटी चादर को सिलते हुये
निकलना होता है रोज
मंजिल तय करने के वास्ते
पहचाने चेंहरो के बीच
अंजाने सफ़र पर
ये जिंदगी भी न !!

8 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.....!!!

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  2. अंजाने सफ़र पर
    ये जिंदगी भी न !!
    जिंदगी तो ऐसी ही है

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  3. येही तो है जिंदगी ... फिर चाहें जो भी कहें ...

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  4. आपकी सभी प्रस्तुतियां संग्रहणीय हैं। .बेहतरीन पोस्ट .
    मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए के लिए
    अपना कीमती समय निकाल कर मेरी नई पोस्ट मेरा नसीब जरुर आये
    दिनेश पारीक
    http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html

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  5. सच्ची यह ज़िंदगी भी ना .....बस जीना इसी का नाम है।

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