एक संवेदनशील वक्त में

कई लोग एक चित्र को
एक तरफ से देख रहे थे और
कई लोग दूसरी तरफ से
कुछ ऐसे भी लोग थे
जो एक चित्र को
कई कोनो से देख सकते थे
 

शीशे मे कैद अक्स
अकसर हमारे वजूद को हिला देता था
 

समाज अंधेरे मे रखा तरल पदार्थ है
जिसका कोई अपना ठोस आकार नही है
सिर्फ और सिर्फ नजरो का धोखा है
वर्चस्व के हाथो का खिलौना मात्र है 


संवेदनशील वक्त की तलाशी 
लेते वक्त 
इंसानियत की आँख 
लाल मिर्च के बीच 
थाली मे पड़े मिले !




रहनुमाओं की स्पर्श में चुभन देखा

बदलते चांद को
और 
किनारों पर लहरों को
ठोकर खाते देखा

आंखो का समंदर
नमकीन ठहरा
अक्सर 
पलको पर उमड़ते देखा

बादल बादल
आसमान देखा
पर
कही जमीन हरी तो
कही बंजर देखा

सुना है
वे खींच लाते है बारिशें
पर
रहनुमाओ की पनाह में
उन्हें खाली हाथ देखा

वे जमीन तोड़ते है
और आसमान बाँटते है
उन्हें
जुदा जान को करते देखा ! 

कब्र तक जनाज़ा निकला

चिराग जलाये रखा
मद्धम आंच पर
भूख पकते रहे
उम्मीद में

वक्त बेरहम निकला
पत्थर तोड़ते वक्त
उम्मीद टाँकते रहे
मासूम हथेलियो पर
कई कई छाला निकला  

रिसते जख्म के चेहरे डरावने निकले 
वक्त कोई भी हो साहब
जख्म तो
हरहाल में जख्म निकला

ना उम्मीद जन्मी और ना इंकलाब निकला
मुफ़लिसी में सिर नीचे रही
ईमान की मौत में 
कब्र तक जनाज़ा निकला
 कांच के अक्स में 
और ना जाने क्या क्या निकला !

गुमशुदा मंजिल के बीच

परंपरा कुछ ऐसी थी कि
पत्थर के अंदर
सबसे खूबसूरत और
शक्तिशाली फूल तलाशते थे हम 

हमें सबकुछ पता था
कि
मृग मरीचिका के भयावह दुष्चक्र मेँ
कही कोई पानी नही है
पर प्यास के लिए कही दूसरा विकल्प भी नही था
और डूब जाना हमारा एक मात्र चयन

बिखराव से भरे रंगो की कैनवास पर
अनेक रंग का नया आसमान तलाशना
जिजीविषा साँसों की रही

तन्हाई मेँ
सड़कें कितनी चौड़ी हो जाती थी
गुमशुदा मंजिल के बीच
हम जिंदगी को
जिंदगी की तरह देखना चाहते थे तब

कभी कभी 
पत्थर ,प्यास ,कैनवास ,सांसें 
सबके सब एक नदी की तरह दिखते थे
उसमें बहते जाना
उम्मीद थी
और शायद यही जिंदगी !

शिनाख्त शेष है !

दहशत में है शहर
और हम फिरते है
मारे मारे

खौफ में
जीया करतीं है रातें
और गहरे सन्नाटो के बीच
तन्हाईयां

आकाश की गहराई में
उम्मीद सितारों की
दूर बहुत है

शाम ढलने को है
बेपता हम
मकान गिरवी है
और तारीख मुकर्र
शिनाख्त शेष है
और सफ़र बाकी !

आँखों में कैद पता

तेरे शहर से
रिश्ता बहुत पुराना था
कारवां बढ़ता गया राहें मिलती रहीं 
पर आँखों में कैद
पता
सिर्फ तेरे शहर का रहा

तेरी जमीन से
जुडी हुई यादें बहुत रुलाती रही 
रुत बहारों की कई
आती और जाती रहीं 

उड़ता रहा वक्त
पाखी बन ,
पर उसका रंगता गया
आसमान की तरह

आगोश में उसके
सितारे बहुत थे
पर चाँदनी
चाँद के इंतज़ार में रही 

आज मुद्दतो बाद
मिलना हुआ उनका 
पर मिले भी तो 
जमीन और आसमान की तरह !

शब्द पन्नों के बीच सुबकते है

पन्ना पलट दो
अब
अक्षर बिखर जायेंगें
शब्द बचा लो
वरना
आसमान टुकड़ों में
बिखर जायेगा

सब्र उनका टूट चुका है
पहाड़ आज बिखरने लगे है
जो युगों रहे 
अडिग और अटल

मासूमियत
उन किताबो की तो देखो
जिन्हें वे पढ़ते हुये
बड़ी बेरहमी से पलटते रहे

वक्त सख्त रहा
किताब के उस हिस्से को तो पढो
जो अब तक मौन था
फट जाये
उससे पहले
इसे बचा लो !!


चल और अचल लम्हों के बीच जिन्दगी कुछ ऐसी है

दो-चार कदम पर था फूल-चमन 
दो-चार कदम पर वह भी थी
जीवन ठहरा, एक समंदर
दरिया की कहानी थी

दो-चार कदम पर थे चाँद-चांदनी
दो-चार कदम पर ही जुगनू थे
रौशन सूरज, फिर भी तन्हा
सितारों की कहानी थी

दो-चार कदम पर थे मंदिर-मस्जिद
दो-चार कदम पर, वे भी थे
सबसे ऊपर एक नाम था
पर अन्धो की कहानी थी

दो-चार कदम पर था सुबह-सवेरा
दो-चार कदम पर ही अंधियारा था
जलता सूरज, सुन्दर बहुत था
भटकन की कहानी थी

दो-चार कदम पर थे लोग-बाग़    
दो-चार कदम पर ही जंगल था
हरियाली थी बहुत सुहानी
पर मिटने की कहानी थी !

पर समंदर कहाँ है ?

रात की गहराई में
एक पुराने जर्जर किले से
एक परिंदा कूदता है
अद्वैत में और तड़पता है
जमीन बहुत सख्त है
जिस्म को खुरदुरा कर देती है
धायल पंखो से वक्त काटता है

बंद कमरों के झरोखें
नहीं खुलती हैं आसानी से
जकड़न है सदियों पुरानी 
पहचाने चेहरों पर गर्द जमी हुई है
और आइना धुंधला गया है

तोड़ना चाहता है वह
उन दीवारों को 
जहां उसे दफनाया गया था

उम्मीद की लहरें चाँद तारो को छूती है
पर जमीन और
आसमान के बीच की शुन्यता में 
यह तय नहीं कर पाता कि
उड़ान कितना बाकी है और लौटना कहां है ?

चारदीवारी की बीच बैठा परिंदा
परात में सज्जी पडी कई जोड़ी आँखों को देखता है
और सभी आँखें उसे देखती है
डूबना चाहता है 
पर समंदर कहाँ है ? 

तलाश जारी थी

लगातार कई शब्द एक साथ
रात की चादर पर बिछती रही 
अंधेरों ने रौशनी को
जादुई एहसास में पिरो रखा था

सूरज पैसो की तरह खनकता हुआ निकलता 
और कुर्सियो के पैरो तले डूब जाता था
हालांकि घास धरती पर
भूख और जिन्दगी के बीच की जद्दोजहद में
हरा रंग बचा लेना चाहती थीं

लगातार भूस्खलन से
दरारें पड गई थी दीवारों में 
छतो से होकर रौशनी नहीं आती थी
गढ्ढे अपनी पुरानी शक्ल में
उम्मीदो पर पानी फेर देते थे

अँधेरा गहराने पर घर की तलाश में
सन्नाटें 
दरवाजो को खटखटाते थें
बड़ी उम्मीद से ,पर
हर बार शिकस्त होती रही साँसों की
सियासत से
और उम्मीद आग में जलती रही

आग का गोला और समन्दर दोनों
बड़े करीब दिखते थे बावजूद इसके 
तपिश जिन्दगी की कम ना होती थी
समंदर शांत था पर
लहरों की उछाल में संघर्ष जारी रहा  

सभी दिशाओं में कुछ गीने-चुने लोग 
मानव मन की कटोरी में बचे हुए थे
जो सूखते हुए उम्मीद पर
प्रेम की हथेलियों से नमी डाल रहे थे
ताकि पृथ्वी को
उसके सम्पूर्ण गोलाई में बचाया जा सके !! 

एक उम्मीद रही तलाश को

वे मगरूर हुये जाते है
कि
चाँद उनके मुठ्ठी में है

उन्हें नहीं पता कि
झील में कैद चाँद
चांदनी को तरसता है
चाहत की प्यास में
झील सूखता जाता है

उम्र सागर की
चाँद तक रही
पर
धरती पर चाँद
कब आता जाता है

उससे ना मिलना
एक बेबसी है
उनको अब ये बात
नागवार सी गुजरी है

उसकी एक तलाश में
भटकते रहे
दर-ब-दर
तलाश फिर भी तलाश रही

यकीन
कुछ यूं ना था कि
वह मिल जायेगा ऐसे
जिसकी प्यास में
पूरी जिन्दगी गुज़री !!

लहू के रंग

झाडू हाथ में थमा
उसे दश्त के हवाले कर दी

चिराग हांथो से छिनकर
सूरज को
रात के हवाले कर दी

उसकी बस्ती में
कोई आता जाता नहीं
उसकी कश्ती को मौजों के
हवाले कर दी

आसमान
सिकुड़ गया कबका
चाँद को
अंधेरो के हवाले कर दी

मौसमों को
क्या पता था कि
बादल सूख जायेंगें 
जमीन को
बंजर के हवाले कर दी

गुजरते वक्त में
उसने
खूब निभाया साथ अपनो का
लहू के रंग ने उसे
गैरो के हवाले कर दी !

चाहत जब शून्य से भर जाये

शून्य के आगे
और पीछे भी तो है कुछ
पर तू जहां है
वहाँ ना भरना बाकी है
और ना खाली होना

जब भी वह अपने
जगह पर थोड़ा खाली होती है
तब जलती है
कविताये शब्द शब्द 

जब वह भर जाना चाहती है
तो पिघल जाते है समस्त हिमखंड
और डूब जाते हैं महादेश  

पर इक ज़रा तेरे हो जाने में
क्या कुछ नहीं उगता
सूनी धरती के माथे पर

ओंस की नमी की तरह  
फैला हुआ है प्यासी जमीन पर !!

वे बेच रहे है आँख और पहाड़

कौन सा राष्ट्र
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो 
धर्मो के बाजार की राजनीतिकरण है  
किस अनुशासन की बात करते है वे लोग
जहां ताख पर रखे नियम क़ानून को
तब उतारा जाता है
जब कोई गिद्ध या चील जाल में फंसते है 
  
चिंट्टियो के बिल में
झोंक देते है वे सारी उम्मीदें
जहां सिर्फ अन्धेरा है और कीड़े
उनके बीच अपनी मूंह खोलने वालो को
अपनी औकात खानी पड़ती है बेबसी में 

सुबह का सूरज देखने के लिए
उन्हें देखना होता है उनके शीशे में
और धुप को
अपने पूर्वजो की पूंजी बताते है वे
और बड़ी ही सहजता से निगल जाते है चाँद
कर देते है तारों की पूरी जमात को
अंधेरी रात के हवाले
चांदनी को लूटते है व्यवस्थापिका के नाम पर

साहब लानत है
जहां आम को आरी से काटा जाता है और
और कटहल चौराहें पर बड़ी ही ऊँची आवाज़ में
अपने काबलियत का परचन लहराता है
लाठी और सिक्को के जमीन पर 
मोटी चमड़ी होने के बावजूद
वह राष्ट्र को संबोधित करता है

अँधेरे में औरतें बच्चो को सुलाती है
कौन से कौम से आये है लूटेरे
जिनके चश्में में झांकना मुश्किल
माँये धरती हुई जाती है
बंजर
उसपर वे तेज़ाब का कुआँ खोदते है

बेच रहे हैं आँख और पहाड़
लूटकर मासूमियत
किसे देश कहे और किसे देश भक्त
क्या हम अपने बच्चो के उनकी अपनी आँख लौटा पायेंगे !




प्यासी चिडियां

उन शब्दों का क्या
जो कभी पेड़ या तने हुआ करते थे

वक्त ऐसा है कि
शब्द पत्थराने लगे है
शीतल छाँव के आभाव में
धरती सूखती जा रही है

आसमान बेबस है
निहारता है अब
धुप और छांव

क्षितिज के छोर पर
बैठी प्यासी चिडियां
सूखती नदी को पुकार रही है
वह कौन सा शब्द होगा
जिससे गंगा वापस आयेगी  !!

सामंती दीवारों के बीच

शहर का बाप नहीं होता
इनके फ़रिश्ते क़ानून तोड़ते है
कुतर दिये गए पंखो में
गौरैयां
उड़ने की कोशिश में फडफडाती हैं 
  
मांये दीवारों में चून्न दी गयी है
बावजूद इसके
वे फरिश्तो को दीवार फांदना सिखाती है
और गौरैयो को फडफड़ाना

सामंती दीवारों में
सिर्फ
धंसता है वक्त
फ़रिश्ते सपनें देखते हैं 
और गौरैयाँ आसमान तलाशती है !

सूखती रही कई कई नदियां

जीवन पी जाती है
कई कई नदियां
और मछलियां तड़पती हुई
दम तोड देती हैं

लहरों ने बचाई
कई कई बार
कई कई जिन्दगियां
बावजूद इसके
सिकुड़ती गई गंगा

उछल कर
गिरती रही मछलियां
और सूख गई सब नदियां !!

सरकार अब भी, क्या सोयी रहेगी ?

एक चिड़ियाँ आती है
और मुंडेर पर तकती सूनी आंखों को
सरकार की भाषा समझाती है

आंखें गंगा की तरह सूख जाने वाली है
सोयी हुई है सरकार
कब जगेगी
नगे धड़ो के लिये क्या?
सरकार अपने मुँह पर कालिख पोतेगी
या सिर के बदले सिर लायेगी

चेहरे की झुर्रियो में दर्द से कराहती
बची सांसो की चीत्कार छुपी है
क्या न्याय ?
अब भी आंख पर
पट्टी बांधकर सोयेगी!!

स्पर्श ...

एक दीप जलायें
चल तिमिर के पार चलें

वहाँ जन्में
जहाँ कभी हम
अस्तित्व में थे ही नही

स्पर्श
शब्दों का
खिलाकर करे
वो जमीन पैदा
जहाँ खुशबू ही खुशबू हो !