अश्क तो नमकीन ही था

नही मिलती है अब  
वर्तमान के हस्ताक्षर में
जो खो गई थी
आँगन से दहलीज के बीच 
पड़ी है कही वो
उल्लूओ की आवाज से
होती और डरावनी
स्याह रातों के बीच  

वक्त के टिक टिक पर
नाचती रूह में, उसके

कई मौसम उदास बैठे है  
जिस्म की कफ़स में 
कई युग बीते  
तूमने रौशनी बना डाली जिस्म को
दूधिया पानी में
और हम
रुह तलाशते रहे दिन के उजाले में

मासूम उँगलियों में
कई जख्म गहरे है 
कुछ इस तरह स्पर्श ने धोखा खाया है  

पत्थरो की रस्म अदायगी में 
घायल होते रहे 
उम्र के कैद खाने में 
बुत बड़ी सख्त बनी  
अश्क तो नमकीन ही था 
और डूबता दोनों जहान रहा

कवितायें भी ना
जन्म लेती कही और हैं
पढ़ी कही और जाती हैं !