हम जिस जगह होते है वही खो जाते हैं

हमारे मर्म में
धरती और आकाश तत्व था
तलाश उन बादलों की थी
जिनके ना होने से
अकाल था और
काल कल्वित लोग थे

शब्द
दर्द के पुकार थे
रोकर थकते नहीं थे
वे पुन: पुनर्जीवित हो जाते थे

तूफ़ान में फँसे लोग
आँख से नहीं
सिर्फ़ दिल से देख पाते हैं,साहब
हम जिस जगह होते है वही खो जाते हैं ।

तुम जिन्दा रहो

तमाम यादों से बनी
एक रात को  
सपनों ने उसे बाहर किया तब
समन्दर में लहरें बहुत तेज
उठ-उठकर ठीठक रहीं थीं तब
वही किनारे पर बैठी हुई बची जिन्दगी ने
उसे नई सुबह का इंतजार करने को कहा

रौशन जहान में
माना की सितारे टूटते भी हैं

तुम जिन्दा रहो
उम्मीद का क्या
बनता और बिगडता भी है
पर याद उस दीपक की रखो
गहरे अंधेरें में भी
जो तुम्हें जीने का हौसला देता है ! 

एक दीपक जो रौशन रहा


घुप अंधेरे को
तलाश
एक सितारे की थी
पर वह हमेशा टूटता मिला

एक दीपक जलता है
रात भर
रौशन जमाने में
कौन सा अंधेरा था
जो दीप से रौशन रहा

हम बुझ जाये कि
मिट जाये
ये सवाल हमेशा दो तरफ़ा रहा
जैसे रात के बाद
दिन या दिन के बाद रात हुआ

सफ़र लम्बी है
अकसर सुनने को मिला
जिस्म के मिटते ही
मंजिल का गुमान ना रहा

है कोई जो साथ चलेगा
ताउम्र
हर एक की लिबास
यहां टुकडा-टुकडा मिला


लिबास हो या चेहरा दोनों उम्र काटतें हैं

दुनिया की तमाम धर्मों के चेहरे
अगर आकाश और धरती की तरह हो जाये
तब भी 
हरे लहलहाते जमीन पर
गेहूं की बालियों में
चांद का चेहरा होगा
और उसकी पूजा
इंसानियत बचाने के लिये है

इश्क अगर जिस्म है
तो रुह से निकलने वाली दुआ
मजलूमों के लिये होगी

उडती चादर पर
खुशबू प्रेम की है
हमारा अस्तित्व
पेड की जडों में है
और मिट्टी से तर-बतर

पहचान की कोई नाम नही होती
औरजैसे किताब की कोई उम्र नही
चाहे तुम जहां से उगो
पर जड तो मिट्टी का है

लिबास हो या चेहरा
दोनों
उम्र काटते हैं यहां!

सुनहरे सूरज का उगना रेशमी धागे पर

हम अपने बाहरी और भीतरी अस्तित्व से ही नही
बल्कि उस समाज से भी बनें हैं
जहां हमसब रहते हैं
और जिसकी संरचना से बाहर होने की कोशिश
एक छलावा हो सकती है
चाहे जिस रुप में साकार हो

पहचान तभी संभव है
जब तक सूरज है,
तमाम तरह के विमर्श में
सूरज को ध्यान में रखकर बात होती तो
संभवतनिष्कर्ष समाधान तक पहुंच पाती
परन्तु,अंधेरा इस कद्र हावी है कि
हमसब यहां तक भूल गये हैं कि
बगैर इसके एक काला घेरा मात्र हैं

पहाड हमारे अंधेरे से कतई नही बनता 
और ना ही
समन्दर और आकाश हमारे नजरिये से
इन सबके अस्तित्व में रौशनी है

गुफ़ायेंछुपने की जगह है
जिसका निर्माण हमसब ने स्वयं किया है
यानि अंधेरा स्वनिर्मित तो है ही
जिम्मेदार हमसब स्वयं ही है
रौशनी से दूर जाने की कवायद है
हमसब की है

भटकन हमारा अंधेरे में है
और रौशनी मंजिल
वहां तक हम पहुंचें,पर
उसके बीच की जमीनें स्वयं सुख के लिये
हमनें खोद डाली हैं

ख्वाब रौशनी है
तुम्हारे और हमारे बीच में
जो रेशमी धागा है
उसके ऊपर
एक सुनहरा सूरज उगता है

संभावना और पहाड़

वह उन समस्त संभावनाओं को
बचा लेना चाहती थी
जिनका अंत वर्षों पहले हो चुका था
और जिसके ना होने से
उथल पुथल मची थी
और मानवीय संवेदना का चेहरा पूर्णत: परिवर्तित हो चुका था
संभावनाओं के गुणतत्व में
वह सब कुछ था
जिससे हम और तुम बने थे


नदी थी
बयार थी
रौशनी था
वो तमाम पहाड़ थे
जिससे वह खुद को टिका कर रखी थी

दो भटके हुये
सफ़ेद हंस भी थे
जिनका तालाब के पास होने का मतलब
बसंत का होना था
कुछ ऐसा भी हो नाथा जैसे कि
मौन दीवरों पर दरवाजे और खिडकी का होना था
इसके आलावा
एक रौशनदान का होना
जहां से एक नन्ही गौरैया आती जाती थी!

रुह एक सफ़ेद बिन्दी है

धरती की सतह पर
जिस्म इंद्रियों का एक संग्रह भर
और इसका नष्ट होना
नई संभावनाओं को जन्म देना है
और आकाश के नीलेपन पर
रुह एक सफ़ेद बिंदी है

जब तक रौशनी है
उसकी सतह पर हरियाली है
पर शरीर का संबंध
अंधकार से है
जो तमाम बौद्धिक इतिहास पर 
कई प्रश्न छोडता है

पहचान अस्तित्व से है 
और रौशनी की सहभागिता
इसे संभव बनाती है
मैं कोई जिस्म नही
मिट्टी भर हूँ
ख्वाहिश भी नही
उडती फ़िरती हवा भर हूँ  

उसके लिखे से जन्मी
सीधे शब्दों में
शब्दों की
एक बिंदी भर हूँ  
१२//२०१९