धुंध के अंदर है
सबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा
टटोलते हुये
खुद को सम्भालते हुये
अनाथ कदमों की
सिसकियाँ नही थमती
अजनबीपन
एहसास से भरा
हर एक सांस
खत्म होती हुई
सुबहें डुबती हुई
सूरज
उगाये थे कभी
हथेलियों पर
बडे आरमान से
प्यास
अंधेरे में चलते हुयें
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!
सबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा
टटोलते हुये
खुद को सम्भालते हुये
अनाथ कदमों की
सिसकियाँ नही थमती
अजनबीपन
एहसास से भरा
हर एक सांस
खत्म होती हुई
सुबहें डुबती हुई
सूरज
उगाये थे कभी
हथेलियों पर
बडे आरमान से
प्यास
अंधेरे में चलते हुयें
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!