और भूल गई प्रेम

सफ़ेद ख्वाबों का
वह शहज़ादा था
पर उसने
ख्वाबों को ही कतरन बना दिया
वर्षों रही तबाही
मौत के बेहद करीब रही
पल पल
और भूल गई प्रेम

मायूसियों से भरी शामें
डूबाती रही एहसास
बनते गये सब पत्थर
पर जीवन तो अंधेरे में ही
सांस लेती रही
जहां कोई नही था

तब उसने शब्दों का हाथ पकडा
नींद में करने लगी थी
इकठ्ठा कतरनों को
कि शायद
फ़िर से उन ख्वाबों को
पहनाया जा सके
कोई जिस्म
पहचानी जा सके जीवन !

सपनों के आकार प्रकार में

अंधेरें के उठा-पटक से
दीपक बुझ सा जाता है

उम्र में कैद
स्याही 
खत्म होने का नाम तक नही लेती
लिखती जाती है जिन्दगी
कमोवेश
आलाप प्रलाप

एक जुगनू रात भर जागता है
टिमटिमाता है
सपनों के आकार प्रकार में

कई वजहें
एक लकीर खिंचती हैं
सच के
इसपार और उसपार
कैद होता है आदमी
बिताये रिश्तों के उम्र में

ठूंठ शाख पर
चांद भी ठिठक जाता है
परिंदों ने शायद
कही और घर बना ली हैं !

बहरुपिये जिस्म से बचना

होश
चांद पर तैरता पानी
बूंद बूंद गिरता 
कि वक्त बहुत कम हैं

बिदा होने का
वक्त आये
कुछ ऐसे कि
जहां कोई जिस्म नही हो

भौतिकता की जहर
पीते हुये वक्त बेवक्त
उम्मीद से खाली करता 
बेदखल प्रेम से

सिर्फ़ खिलौनें हो
उल्कें नही
जो टूट के विखर जाये 
आंचल तारों से भरे फ़िर 
मां एक बार फ़िर कहें कि
फ़िक्र ना कर
वक्त पर सोया कर और 
पढने के लिये
सुबह का वक्त ही सही है

आंखों में
एक छोटा सा सपना हो
सच्चा
पुरा हो और
किताब हो जाये
बहुरुपिये जिस्म से बचना
धरती को गर्मी से बचाना है