एक वही तो है
जो बदलता नही
मिलने की लाख कोशिश करने पर भी
शिकवा नही करता
जमाने से
वक्त के कोहरे ने
दफ़न कर दिया
खुद को खुद के अन्दर कही
लाख दरवाजे पर
कोई दस्तक होती
वह सोया ऐसा कि
उठने की कोई जुगत नही करता
हमारी भटकन
मंदिर-मंदिर
तलाश युगों की
और हम मिल ही गये
तो मिलना क्यों नही होता
सवाल पुरानी है
पर चेहरे पर चढी धूल
और मलिन हाथों के स्पर्श
आज भी दूर कर रखा है
मिलन
अन्तर्रात्मा की !