हम आसमान पर नही तो धरती पर....?

जमीन से निकलनेवाले
पेड-पौधो,कीडे-मकौडो की
कही कोई बात नही होती

कहाँ से आती है हरियाली और
कहाँ कहाँ है सुंदरतम चीजे
इसकी जानकारी कही कोई नही होती  

रोज धरती अपने जगह से
थोडा थोडा खिसक रही है
कही कोई चर्चा नही 

आसमान भी हररोज
थोडा कम नीला हो जाता है
इतनी बडी घटना पर भी 
रात की गहराई नही मापी जाती

रिश्तो में खुन कम
पानी ज्यादा भरने लगा है
और इसकद्र रोज थोडा
यह भी मरने लगा है

सभी भाग रहे वक्त की तरह
बिना सोचे 
परिवर्तन हमें किसी विनाश की संकेत दे रहे
पर
अनुमान लगाने से भी परहेज क्यो है
हम आसमान पर नही तो
धरती पर क्यो है ?

जरूर एक कविता हो

जलती हुई होनी चाहिये
एक कविता
भूख की आग की तरह
जिसमे जले एक एक अक्षर
विषमता के
खाक हो विषम धारणाये
जरूर एक कविता हो 

अन्न से पैदा हो उर्जा
और गरीबी लाठी टेकना छोडे
विषम लपट में 
मरने और मिटने वालो पर  
जरुर एक कविता हो  

बंजर जमीन पर जख्म रिसते रहे  
धोखा फलते और फुलते रहे 
कांटो के अततायी चूभन पर
जरुर एक कविता हो

बढ रहे नाखूनो के
काटने के सही तरीको पर और
उनके उंगलियो से बचा लिये गये
मासूमो के खुशी पर
जरुर एक कविता हो

बंदरो की टोली में 
नन्हें मासूम बिलखते रहे 
रिश्तो की गर्मी जो खोते रहे 
उनके अरमानो को सवारने पर
जरुर एक कविता हो

पत्थर तोडती माँओ के
पूरे दिन के कमाई में भूख एक बिवाई रही
गरीबी के जिस्म पर 
तार तार आंचल में
उनके चाँद-तारो के पेट ना भर पाने पर 
जरुर एक कविता हो  !!

मौत है भाषा की


कहते है जनतंत्र
उसके बाद जन-गण-मन
लोग आजादी पाकर आजाद थे
विश्राम की मुद्रा में
थकान थी शायद इसलिये
जिन्हें जाना था, 'हे राम' कह
वह चले भी गये

देश अब भूखे हाथों में थी
और हम सब चीर निंद्रा में
रात जगे के बाद की नींद जो थी
माँ के कलेजे को गोली से
छलनी किया
पर सुराख दो ही बना
लहूलूहान हाथो से लिखा गया
आर और पार
महत्वकांक्षी किस्म की नसल थी
जिनको पाक़ चाहिये था

एक पवित्रग्रंथ में कानून लिखा गया
पर आहुति में कानून ही डालें गये
जली गरीबी
लोभी हाथो को ढँके गये
इंसाफ की आंखो को इसतरह की
अन्याय बढती नसलों को लीलती गई

विस्फोट हुआ चींटियों का
और चाट रहे है तलवे अबतक
कट रहे है भेड-बकरियों सी
निहायत जरुरी चीजे
जल रही है भूख 
और बदहवास आंखे लाचार

चीन की दीवार बनी खडी रही 
जनता और नीति के बीच के सम्बंध
और सताधीन हुये शहंशाहे-आलम
पाँव से लगकर बैठी रही कानून
पंडितो के पंडिताई पर ही डोलती रही कानून
और तबसे ताशे और ढोल पिटे जाते रहे 
शायद नींद टुटे

रोते हुये सवाल
दफन होते शब्द
हर तरफ
मौत है भाषा की
गुंगे बहरो की परम्परा में
आज हर एक चीज एक तरफा  है

क्षेत्रवादी संस्कार आज दानवी रुप में 
विघटन का मंत्र पढा रहे है
भूखे हाथों की षणयंत्र है
जो फैला रहे  है हर तरफ असमानतायें
खा रहे है मानवियता
क्या आज भी हम आजाद है
भ्रष्टाचार के दावन के बीच !!

तेरा उगना और डूबना

सुबह से शाम हुई
कलरव में
देखते हुये
तुझें 

कई शाम
कंधो पर
लेकर बैठी है जो
आसमान
ओंस की मानिंद
काटी है यादें

कोई सीप
तुझ सा ना मिला
कि बन जायें
मोती

लहरों की
साजिश में
लौट जाता है वक्त  
किनारों से
ठोकर खाकर 

किनारे देखती रही हैं तुम्हें
सुबह और शाम में
उगते और डूबतें !! 

जनतंत्र है बंधू

हर किस्म के फुल खिला करते है
चमन में खुशबू से ज्यादा
कांटे ही मिला करते है

ना हो उदास यहाँ
कही भी और
किसी भी भेष में
नारयण मिला करते है

जोश में यहाँ जहान कई खोते है
झंडे के पीछे
जीने के कई फंडे है

भेद भाव के नीति पर
जमीन और भाषा के बीच यहाँ
अजीबो-गरीब घमासान

लहलहाती कुर्सियों पर
सता के खेल है और
गरीबी में जलती पेट है

जनतंत्र है बंधू !!

यकीन ना था

तुम आओगे
और भींगना होगा
इस इसकद्र
यकीन ना था

धीमी
और उल्झी सांसो में
आग होगी
यकीन ना था

दस्तक हुई
दरवाजे पर और
धडकने होंगी
यकीन ना था

एहसास के आसमान पर   
शब्दो के गिरह खुल जायेंगे
हौले से
यकीन ना था

वक्त देखते ही देखते
कुछ यूँ बदल जायेगा
यकीन ना था

बंद किवाडो के बीच 
निगाहें सजदे में होगी
यकीन ना था

तू आये या ना आये
कदमो का चलना होगा
अब कांटो पर 
यकीन ना था !!