जब गरज थी,
तब सब
बड़ी ही ख़ुशी से मिले
ख़्वाहिश पूरी हुई
उसके दरवाज़े पर
वह मसीहा ना था
एक ईमानदार बेटा था
दादा जी का
तब सब
बड़ी ही ख़ुशी से मिले
ख़्वाहिश पूरी हुई
उसके दरवाज़े पर
वह मसीहा ना था
एक ईमानदार बेटा था
दादा जी का
गरज पूरी हुई सब चलते बने
अपने दबड़े में
और बुद्धिमान बन गए
शालीन और कुलीन भी
और ना जाने क्या क्या
दादा जी आहत थे
तमाशे से
उनके विश्वास के ख़ज़ाने को
उनके बेईमान बेटों ने लूटा था
अपने दबड़े में
और बुद्धिमान बन गए
शालीन और कुलीन भी
और ना जाने क्या क्या
दादा जी आहत थे
तमाशे से
उनके विश्वास के ख़ज़ाने को
उनके बेईमान बेटों ने लूटा था
ईमानदार होना
एक बड़ी ही अजीब दूर्घटना लगती है
क्योंकि ईमानदारी जगह जगह पर ठोकर खाती है
और ठोकर मारने वाले पत्थर अपने ही होते हैं
एक बड़ी ही अजीब दूर्घटना लगती है
क्योंकि ईमानदारी जगह जगह पर ठोकर खाती है
और ठोकर मारने वाले पत्थर अपने ही होते हैं
अब गरज वाले
अजनवी बनकर मिलते है उससे,
दुखद
मिट्टी को सोना बनाने वाले
ख़ाली मकान को टटोलते है
अजनवी बनकर मिलते है उससे,
दुखद
मिट्टी को सोना बनाने वाले
ख़ाली मकान को टटोलते है
पर उन्हें नहीं पता कि
रंगमंच के
अंतिम दृश्य में
कुछ भी ना छुप सकेगा
क्योंकि 'वह' हर किरदार को
बड़ी सफ़ाई से पेश करता है !-- संध्या आर्य १६/३/२०२०
रंगमंच के
अंतिम दृश्य में
कुछ भी ना छुप सकेगा
क्योंकि 'वह' हर किरदार को
बड़ी सफ़ाई से पेश करता है !-- संध्या आर्य १६/३/२०२०
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 18 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDelete