शामें जब खुबसूरत होती थी

आज बंजर जमीन की
घासे पीली थी
धरती सूखी, पर
रातें काली नही थी
उसने बचपन से ही
तारों के आसपास जीने की
आदत डाल रखी थी

हलांकि बचपन मे
सुबह,
फ़ूलो की खुशबू से होती थी
जो मां को 
पूजा के लिये चाहिये होता था
और शाम
पापा के आने के इन्तजार मे
खुबसूरत हो जाती थी
पापा शांत समन्दर की तरह
रिश्तो की शीतलता को
अपने अन्दर समेटे रखते थे
जो कि आज भी जारी है

और पेड की मोटी शाख की तरह थे
जिसपर हम बच्चे निडर होकर
नन्हें पंछियो की तरह
आकाश मे उडान भरने की
अथक प्रयास करते, ना थकते थे
जहां मेरी दुनिया 
ऊंची उडान भरती खुबसूरत रिश्तो मे बंधकर

आज मेरी शाखें जितना भी मजबूत है
सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे पापा की वजह से
शायद यही वजह है कि घर को घर बना रखा है
वरना इस बदलते बहरुपिये समाज मे

अब वक्त और प्रेम रिश्तो के पास है कहां !

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-06-2018) को "कैसे होंगे पार" (चर्चा अंक-3006) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. पिता को समर्पित सुन्दर और दिल को छूते हुए शब्द पिता दिवस को सार्थक कर रहे हैं ... बहुत खूब ...

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