शब्द शब्द नज़ारा हो

समन्दर में डूबें
तो मोती हो

आकाश में उडें
तो सितारा हो

जमीन पर चले
तो किनारा हो

आंखों में नींद भरे
तो ख्वाब हो

जगने पर
रौशनी का सहारा हो

साथ चले या ना चले,
बस शब्द शब्द नज़ारा हो

नीले आसमान पर

लिखता मन 
पढता तन 

सफ़र में
एक परिंदा
पेड की शाख पर बैठा
इंतजार करता
भोर की
अंधेरे में भटकी सुबह
सिर्फ़ नारंगी होगी 

इश्क सफ़ेद चादर सी
बात खत्म होगी
कुछ इस तरह
जिस्म से
रुह की रिहाई पर !

मंदिर-दर-मंदिर


एक वही तो है
जो बदलता नही
मिलने की लाख कोशिश करने पर भी 
शिकवा नही करता
जमाने से

वक्त के कोहरे ने
दफ़न कर दिया
खुद को खुद के अन्दर कही
लाख दरवाजे पर
कोई दस्तक होती
वह सोया ऐसा कि
उठने की कोई जुगत नही करता

हमारी भटकन
मंदिर-मंदिर
तलाश युगों की
और हम मिल ही गये
तो मिलना क्यों नही होता
सवाल पुरानी है

पर चेहरे पर चढी धूल
और मलिन हाथों के स्पर्श
आज भी दूर कर रखा है
मिलन 
अन्तर्रात्मा की

वह गुनाह की तरह पन्नों में दर्ज होती गई

चाँद के दरवाजे पर
करवट बदलती रात
दाग चेहरे पर कैसे पडा उसके
ना उसे,ना अंधेरे को मालूम था
और ना ही चाँदनी को

फ़िर क्यों उसे याद रह गई
चंद बातें
कहानी में पतंग
और अंधेरे में हंसने वाली लडकी
तपते रेत पर मृग-मरीचिका थी और वही है
जिन दिनों कहानी लिखी जा रही थी
वह गुनाह की तरह
पन्नों में दर्ज होती गई
और अक्षरों में वह ताकत थी कि
उन्होंने जिस्म पहना दिया

अब बात रोने की है तो
चाँद पर ना रोये कोई
ना ही चाँद दाग़दार है
होगी कहानियां कई
चाँद पर
वह तो अकेला है तन्हा है
युगों से
पर सूरज के आस पास
गोल चक्कर काटता है

खींच लेता है वह
थोडा सा जमीन और आकाश
जहां वह तारे की शक्ल में टिमटीमाता है रोज
समन्दर शांत भाव से करवट बदलता है
उठता है तो उफ़नता है अकसर
और पछतावे के आग से भर जाता है

कई कई कवितायें एक साथ
स्वर-लहरियॊं मे गाती हैं
उसके रोने पर
कई फ़ूल गिर जाते हैं एक साथ
पर उसे यह नही पता कि
होंगे लाखों लोग ऐसे
जो भूख लगने पर हासिल करते हैं खाना
पर वह एक है
जो अपनी जिस्म में
सुरमयी शाम है !