उदास दिनों में क्षणभंगुर होते सबके सब

उदास दिनों में काग़ज़ पर उँगलियाँ काँपने लगती हैं 

समंदर बनकर आँखें डूब जाती हैं 

होंठ कुछ कहने से पहले कपकपा जाते हैं 

और आवाज़ किसी बर्फ़ के तूफ़ान से घिर जाती है 

सिर्फ़ और सिर्फ़ आकाश की तरफ़ देखती हैं आँखें 

कि बेसुध सन्नाटा पसरा मिलता है दिनों,महीनों और वर्षों


कई बार कुछ इसतरह से 

खुलते जाते हैं उदास दिनों की बेतरतीब तहख़ाने 

जहाँ किताब के कुछ पन्नें  

यूँ ही पलट जाते है और 

स्मृति के पन्नों पर कई-कई डंक एक साथ लगते हैं  

और मुक्त होना शायद इसी को कहते हैं उदास दिनों में कि 

आकाश के अनंत ऊँचाईयों में 

विलीन होने के भाव से भरते जाते हैं हम  


उदास दिनों में 

किससे कहे और 

क्या कहे,

कहाँ से कहे,

किस ओर से पहले

और किस ओर से नहीं ,

क्या है सही और क्या है ग़लत 

इन सबके बीच फँस जाती हैं साँसे 

किस दिशा में सूरज होगा  

रौशनी भी क्या हाथ चूमेगा  

जीवन चक्र में फँसी हुई राहें 

उदास दिनों की सौ बात बताये


सूरज,चाँद,सितारे 

धरती गगन सबके-सब 

होते हैं क्षणभंगुर उदास दिनों में