बर्फ पिघलते कैसे

उन दरवाजो को तोड़ना संभव ना था 
जो उदार और शालीन दिखने वाले लोगों के बीच खुलती थी
ऊंचाई,ताकत, दंभ और ना जाने कितनी बारीक तहें थी
जहां चिंट्टियां रौंद दी जाती थी

ऐसे समंदर का क्या
जहां बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को बेखौफ खाती थीं 
और उँगलियों पर लहरों को गिनना
एक आदत बन चुकी थी

चिंगारी
राख़ में ठंडी पड़ी मिलती
और हम
जमे बर्फ के वास्ते गर्मी तलाशते थे !

9 comments:

  1. सुन्दर भावाभिव्यक्ति...हर तरफ कड़वाहटें नजर आती हैं... हमारी संवेदनाएँ जम गयी हैं बर्फ की तरह... जिसके पिघलने के आसार नज़र नहीं आते... फिर भी कामना है यही कि कही कोई उष्णता बची हो शेष...
    http://himkarshyam.blogspot.in

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  2. बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति संध्या जी , बहुत ही उम्दा

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-02-2014) को "गाँडीव पड़ा लाचार " (चर्चा मंच-1521) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत कुछ कहती रचना ...
    सुन्दर !

    ~सादर

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  5. बेहद गहरे अर्थों से लबरेज़ रचना....संध्या जी

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  6. बहुत खूब - जय हो - महाशिवरात्रि की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |

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