मंदिर-दर-मंदिर


एक वही तो है
जो बदलता नही
मिलने की लाख कोशिश करने पर भी 
शिकवा नही करता
जमाने से

वक्त के कोहरे ने
दफ़न कर दिया
खुद को खुद के अन्दर कही
लाख दरवाजे पर
कोई दस्तक होती
वह सोया ऐसा कि
उठने की कोई जुगत नही करता

हमारी भटकन
मंदिर-मंदिर
तलाश युगों की
और हम मिल ही गये
तो मिलना क्यों नही होता
सवाल पुरानी है

पर चेहरे पर चढी धूल
और मलिन हाथों के स्पर्श
आज भी दूर कर रखा है
मिलन 
अन्तर्रात्मा की

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-10-2018) को "मैं तो प्रयागराज नाम के साथ हूँ" (चर्चा अंक-3123) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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