हमसफ़र शब्द
सुलगते एहसास में शब्दों के जिस्म पर एक धुँआ सी है जिंदगी !!
बेबसी इस पार जितनी
करीब उनके चाँद भी शरमाया है
एक दिन तुझसे छूट जाती है
तुम चाहो तो
चाहो तो
ख़ुशबू
एहसास
और चाँद बना दो
तुमसे होकर गुज़र जाऊँ
और तुम
एहसास
ख़ुशबू और
चाँद से भर जाओ
ना ‘तुम’ जिस्म
और ना ‘मैं’जिस्म
हमारा खोना क्या
और पाना क्या
नदी और पुल का प्रेम
ईश्वरीय प्रेम है ।
उदास दिनों में क्षणभंगुर होते सबके सब
उदास दिनों में काग़ज़ पर उँगलियाँ काँपने लगती हैं
समंदर बनकर आँखें डूब जाती हैं
होंठ कुछ कहने से पहले कपकपा जाते हैं
और आवाज़ किसी बर्फ़ के तूफ़ान से घिर जाती है
सिर्फ़ और सिर्फ़ आकाश की तरफ़ देखती हैं आँखें
कि बेसुध सन्नाटा पसरा मिलता है दिनों,महीनों और वर्षों ।
कई बार कुछ इसतरह से
खुलते जाते हैं उदास दिनों की बेतरतीब तहख़ाने
जहाँ किताब के कुछ पन्नें
यूँ ही पलट जाते है और
स्मृति के पन्नों पर कई-कई डंक एक साथ लगते हैं
और मुक्त होना शायद इसी को कहते हैं उदास दिनों में कि
आकाश के अनंत ऊँचाईयों में
विलीन होने के भाव से भरते जाते हैं हम
उदास दिनों में
किससे कहे और
क्या कहे,
कहाँ से कहे,
किस ओर से पहले
और किस ओर से नहीं ,
क्या है सही और क्या है ग़लत
इन सबके बीच फँस जाती हैं साँसे
किस दिशा में सूरज होगा
रौशनी भी क्या हाथ चूमेगा
जीवन चक्र में फँसी हुई राहें
उदास दिनों की सौ बात बताये
सूरज,चाँद,सितारे
धरती गगन सबके-सब
होते हैं क्षणभंगुर उदास दिनों में ।
ईमानदारी की मोल मिट्टी सी
तब सब
बड़ी ही ख़ुशी से मिले
ख़्वाहिश पूरी हुई
उसके दरवाज़े पर
वह मसीहा ना था
एक ईमानदार बेटा था
दादा जी का
अपने दबड़े में
और बुद्धिमान बन गए
शालीन और कुलीन भी
और ना जाने क्या क्या
दादा जी आहत थे
तमाशे से
उनके विश्वास के ख़ज़ाने को
उनके बेईमान बेटों ने लूटा था
एक बड़ी ही अजीब दूर्घटना लगती है
क्योंकि ईमानदारी जगह जगह पर ठोकर खाती है
और ठोकर मारने वाले पत्थर अपने ही होते हैं
अजनवी बनकर मिलते है उससे,
दुखद
मिट्टी को सोना बनाने वाले
ख़ाली मकान को टटोलते है
रंगमंच के
अंतिम दृश्य में
कुछ भी ना छुप सकेगा
क्योंकि 'वह' हर किरदार को
बड़ी सफ़ाई से पेश करता है !-- संध्या आर्य १६/३/२०२०