गुलशन से रुखसत हुई
इस उम्मीद में कि
फ़ूल खिलेंगें
पर पत्थर पर
कब फ़ूल खिले हैं
पांव जख्मी थे
कांटे की सफ़र में
जमीन का जो हिस्सा
उसके हिस्से में आया
वह बंजर था
इंतजार में बैठी रही
एक नन्ही गौरैया की
जो खिंच लायेगी
सम्भावनाओं की एक तिनका
और बनायेगी
एक घोसला उम्मीदों की
और सुबह के सिरहाने पर
उगेगा
फ़िर से एक नया सूरज!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-03-2019) को "पन्द्रह लाख कब आ रहे हैं" (चर्चा अंक-3277) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteshukriya !
Deleteये उम्मीद ही तो जरूरी है ...
ReplyDeleteजरूर आती है सुबह ... सुन्दर रचना ,...
shukriya !
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