बेबसी इस पार जितनी



नदी और घास सूखती रहीं
और कही इनसे दूर
हमसब अपने हिस्से के धूप पर रोते रहे

तभी तो खोया है जंगल
खोयी है मीट्टी
और खोयी है ख़ुशबू धरती की

एक भूख ने
दूसरे भूख को खाया है बारी-बारी
पत्थर के ज़मीन पर
घासें नहीं उगा करती
इस तरह कुछ
टुकड़ा टुकड़ा हो जाती है धरती
लाख आईना सूरत दिखाये
पर उसे तो
पत्थर की ठोकर से टूट जाना होता है
बेबसी इस पार जितनी
उसपार भी उतनी ही है

टूटना
मिट्टी को खोना है
मिट्टी में मिलना
खोने के बाद ही होता है।

6 comments:


  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 7 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. वाह!बेहतरीन ।

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  3. बहुत गहरी सोच और चिंतन को सशक्त शब्दों में बाँधकर पेश किया है आपने।
    नदी और घास सूखती रहीं
    और कही इनसे दूर
    हमसब अपने हिस्से के धूप पर रोते रहे ।

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  4. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना

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