सुबह सबेरे दो-चार कदम की दूरी पर

सुबह-सुबह दो चार सौ कदम की
दूरी पर
मडई में बच्चों को
चहकते देखा
सभी के सभी
एक एक लत्ते में थे

आंखे कदमो से
कई गुन्नी रफ्तार में चल रही थी
धुँआ पहाडो में खो रहा था
हर पचास कदम पर
मिट्टी से बने
घरों के दरवाजे खुले और 
अलग अलग रंगो के चित्र झलकते मिले
पर गरीबी का एक ही रंग था वहाँ

लोग ऐसे जैसे पहाड हो गये हो
आंखे स्थिर चित शांत
पेट में धंसी आंते
भूख से जलने का संकेत देते हुये
शरीर पर गुफानुमा आकार लिये हुये थी 

बच्चे ऐसे जैसे उन्हे
रोना कभी आया ही ना हो
आसपास की चीजो को
ऐसे देखते वे
जैसे वे गहन मौन में हो

माँ की गतिविधियों पर
नजरे ऐसे टिकाये जैसे
जिंदगी की गति को देख रहे हो
और वहाँ से गुजरते हुये 
उनके परिवक्व आंखो में
बचपन कही नही दिखा

सारी बचपना वहाँ के
जानवरों ने हथिया रखी थी
वे झुमते गाते गुरार्ते दिखे
कदमों की आहट पर
खमखाह शहरी आंखे डरती रही
गाँव तो उन्हें अपने
स्पर्श में बिखरते देख रहा था
एक आध कुत्ते भौंक रहे थे
साथ ही साथ चौक भी रहे थे

उछ्लते कुदते कुत्ते तो
वो स्पर्श दे गये जैसे मानो
सदियों से पहचान रहे हो
और मिलना अचानक
एक उत्सव बन गया हो

समय ऐसे मिला वहाँ
जैसे मूँह की खाये बैठा हो
औरतें मानो उसे
पानी के साथ घडों में भरती है
सुबह सबेरे और
भूख की आंच पर
चूल्हें पर पकाती है
बडे चाव से 

फटे कपडो में लिपटी
औरतें ऐसे दीखती
मानो सुनसान आसमान के
आगोश में 
चाँद के ऊपर 
बिखरे बादल लिपट पडे हो

ओंस में सनी जमीन  
जीवन घास थी वहाँ 
जिनका लहलहाना
हरा कम होना था
और सुखना
पीला ज्यादा  !!


5 comments:

  1. वाकई, बहुत सुंदर
    क्या कहने

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  2. यथार्थ को कहतेइ सुन्दर रचना ....मार्मिक प्रस्तुति

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  3. यथार्थ का इतना वास्तव और मार्मिक चित्रण !

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