सच स्याह रात थी
सुबह ना था
उम्मीद शीतलता की
रौशनी के बीच कटने लगी थी
जमीन तो था
पर नमी ना था
जहां नदी थी
वहां रुदन बची थी
रोज सबेरे
उदास सूरज
चमड़े के बीच जलता था
आवाजें ऐसी थी कि
स्पर्श अनाथ थी
गहन अंधेरे में
मोमबत्तियाँ जलती थी !
सुबह ना था
उम्मीद शीतलता की
रौशनी के बीच कटने लगी थी
जमीन तो था
पर नमी ना था
जहां नदी थी
वहां रुदन बची थी
रोज सबेरे
उदास सूरज
चमड़े के बीच जलता था
आवाजें ऐसी थी कि
स्पर्श अनाथ थी
गहन अंधेरे में
मोमबत्तियाँ जलती थी !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (28-06-2014) को "ये कौन बोल रहा है ख़ुदा के लहजे में... " (चर्चा मंच 1658) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
जमीन तो थी
ReplyDeleteनमी ना थी
बहुत सुंदर ।
बहुत खूब !
ReplyDeleteउम्मीदों की डोली !
बढ़िया लेखन , आ. संध्या जी धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
बहुत गहरी सोच।
ReplyDeleteगहरी सोच से उपजी रचना ..
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