जीवन नदियों से चला
और समन्दर पर ठहर गया
बस और क्या था
नमक ही नमक
रुकना जरुरी था
कुछ समय के लिये
झील-झरनो के पास
ताकि मिठास नदी की बनी रहे
पर रफ़्तार ऐसी रही कि
हवा की नमी तो गई
साथ ही
आंखो का पानी भी सूख गया
अनकहे की आवाज थी
अनसूने की कल्पना
और अनदेखे सपनो की पहचान पुरानी थी
पल पल बीतते वक्त मे
उसने बचा रखा था सब्र
पर तलाश खुद से खुद की रही
याददाश्त का जाना सदियो पुराना था
खुद के अन्दर
खुद को पाना मुश्किल ना था
कुछ यूं था कि
चिठ्ठी तो मिली गई
पर मंजिल का पता ना था !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार 07-07-2018) को "उन्हें हम प्यार करते हैं" (चर्चा अंक-3025) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/07/blog-post_7.html
ReplyDeleteआँखों में भी जब समन्दर उमड़ता है तो नमकीन पानी बहने लगता है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
bahut bahut shukriya !
Deleteवाह !
ReplyDeletebahut bahut shukriya !
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