सुबह सुबह कांच का गिलास टूटा
पर उसने अपने नर्म ऊंगलियों से उठाई
टूटे कांच के टुकडो को
सुबह ही था
जब उसने मां से बात किया
बताया कि जीने के लिये
पैसो से ज्यादा
भरोसे की जरुरत होती है ना मां
यह तुमसे ज्यादा और कौन जानता है
मैने मां से कहा
चेहरे के ऊपर कई चेहरे हो सकते है
पर प्रेम को
किसी चेहरे की जरुरत नही होती है
मां ने कहां
तुमसे ज्यादा और कौन जान सकता है भला
तू छोटी है पर
देख तू तो
टूटे बिखरे कांच को ऊंगलियो से उठना भी जानती है
तुझे याद है ना मां
पापा सिर्फ़ शाम को आते थे
और सुबह
हमारी मुठ्ठी मे होती थी
पूरा दिन टिक टिक पहियो पर ऐसा चलता
जैसे सुनहरी धूप की आगमन की तैयारी मे हम सब लगे हो
ना कोई भूत था और कोई भविष्य होता हमारे आगे पीछे
सिर्फ़ शाम का इंतजार होता था
वर्षो बाद मां ने यह बताई की
उम्र से ज्यादा
अनुभव देते है जीवन को विस्तार
पर हमने जो जिया है
वह किसी भरोसे का मोहताज पल नही रहे है
प्रेम से अंकुरित पल रहे थे वे दिन
जब पापा के जीवन मे
सहज हम सब उतरते थे
और वे मुस्कुरा कर
मां को यूं छेड देते थे !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-07-2018) को "अब तो जम करके बरसो" (चर्चा अंक-3028) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteआभार !
Deleteअद्भुत अप्रतिम।
ReplyDeleteएहसास और भावों का गूंथन।
आभार
Deleteआभार
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत। सादगी में बाँधे गए अद्भुत भाव
ReplyDeleteshukriya aur aabhaar aapka !
Deleteबेहद सटीक एवं गहन भाव को बड़ी खूबसूरती के साथ इन अंतिम पंक्तियों में लिख दिया है आपने बहुत बढ़िया संध्या जी....:)आभार
ReplyDeletebehad shukriya padhane aur utsaah badhane ke liye !
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