एक पूरे दिन में

हरतरफ कुछ बह रहा है
सूख - सूखकर
वह मंत्र भी जिसने दुनिया को
चलना सिखाया

देखो ना
उस पुराने किले के बाहर
जो नदी थी ना
जिसमे बुद्ध का अहिंसा वाला मंत्र भी सूख गया और
जमीन फट गई है

आसमान का नीलापन भी धुंधला गया है
वही हमारे हाथो के बीच का
तुम और मै भी
भूरे रंग की दुविधा में झूल रहे है

शीशे में किसी भी अक्स का चेहरा साफ जो नही है
जमीन से जुडी हर चीज
पृथ्वी की बढती ताप से
भाप बनके उड जो रहे हैं

सबने तो अपनी अपनी कह ली
प्रश्न तो यह है कि
बापू की बहुत सारी बातो से
सहमत तो है हम सब
पर कितने कदम चल पाते है
एक पूरे दिन में !!





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