समंदर की गहराई मापते
या पहाड़ चढ़ते
ऊबड़ खाबड़ जमीन पर
श्वेत-श्याम के बीच
जूझती जिंदगी को
सफर की बोझिलता से
बचा लेना चाहते थे
चेहरे पहचाने से थे
और रास्ते
उलझे हुये धागे थे
नेक आँखें
नमकीन ज्यादा और रौशन कम थी
क्यों मजबूर थी साँसें
आखिर कौन सा मंतर था
जहां हम ऊंचाई और गहराई को
परिभाषित करने से डरते थे
और खौफ में बैठी आँखों को
कही कोई मसीहा नज़र नही आता था
कही किसी गली की चुन्नी
या किसी कोठे पर बैठी मुन्नी
या किसी ढाबे में चाय बांटता छोटू
सबकी आँखें पीली थी
कोयले में आग बहुत थी
पर अफसोस
उन तक नही पहुंचता था
जो दर्द को समंदर बनाते थे
और आसमान को ऊंचा !
या पहाड़ चढ़ते
ऊबड़ खाबड़ जमीन पर
श्वेत-श्याम के बीच
जूझती जिंदगी को
सफर की बोझिलता से
बचा लेना चाहते थे
चेहरे पहचाने से थे
और रास्ते
उलझे हुये धागे थे
नेक आँखें
नमकीन ज्यादा और रौशन कम थी
क्यों मजबूर थी साँसें
आखिर कौन सा मंतर था
जहां हम ऊंचाई और गहराई को
परिभाषित करने से डरते थे
और खौफ में बैठी आँखों को
कही कोई मसीहा नज़र नही आता था
कही किसी गली की चुन्नी
या किसी कोठे पर बैठी मुन्नी
या किसी ढाबे में चाय बांटता छोटू
सबकी आँखें पीली थी
कोयले में आग बहुत थी
पर अफसोस
उन तक नही पहुंचता था
जो दर्द को समंदर बनाते थे
और आसमान को ऊंचा !
सार्थक रचना।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।।।
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