हमारे मसीहा हमे भूलाते गये
और हम मानो किसी नदी से बाहर आते गये
और हम मानो किसी नदी से बाहर आते गये
ठहर गई जिन्दगी वहां
जहां मरुस्थल सी ताप थी
सडक किसी विराने मे
अकेले कही किसी ओर चलती गई
बची हुई मुठ्ठी भर सपनीले रातों को
अब दरिया के किनारे रखूं या सूरज के सामने
हकीकत यह रहा कि
रौशनी और अन्धेरे के बीच
उलझती गई जिन्दगी यूं
कि साफ़ आइना भी धुंधलाने लगा
बचा सकते हो तो
पाषाण मे जीवित धडकनो को बचाओ
ना कोई यहां मसीहा है
और ना ही कोई तख्तोताज़
ना ही कोई हाथ है
और ना ही कोई द्वार
जो हमारे मुक्ति के दिन के साथी बने !
जीवित धडकनें बची रहें तो मसीहा और भी मिल जाते हैं ...
ReplyDeleteshukriya aur aabhar !
Deleteshukriya aur aabhar !
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