हम अपने बाहरी और भीतरी अस्तित्व से ही नही
बल्कि उस समाज से भी बनें हैं
जहां हमसब रहते हैं
और जिसकी संरचना से बाहर होने की कोशिश
एक छलावा हो सकती है
चाहे जिस रुप में साकार हो
पहचान तभी संभव है
जब तक सूरज है,
तमाम तरह के विमर्श में
सूरज को ध्यान में रखकर बात होती तो
संभवत: निष्कर्ष समाधान तक पहुंच पाती
परन्तु,अंधेरा इस कद्र हावी है कि
हमसब यहां तक भूल गये हैं कि
बगैर इसके एक काला घेरा मात्र हैं
पहाड हमारे अंधेरे से कतई नही बनता
और ना ही
समन्दर और आकाश हमारे नजरिये से
इन सबके अस्तित्व में रौशनी है
गुफ़ायें, छुपने की जगह है
जिसका निर्माण हमसब ने स्वयं किया है
यानि अंधेरा स्वनिर्मित तो है ही
जिम्मेदार हमसब स्वयं ही है!
रौशनी से दूर जाने की कवायद है
हमसब की है
भटकन हमारा अंधेरे में है
और रौशनी मंजिल
वहां तक हम पहुंचें,पर
उसके बीच की जमीनें स्वयं सुख के लिये
हमनें खोद डाली हैं
ख्वाब रौशनी है
तुम्हारे और हमारे बीच में
जो रेशमी धागा है
उसके ऊपर
एक सुनहरा सूरज उगता है!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-07-2019) को "भँवरों को मकरन्द" (चर्चा अंक- 3394) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन
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