भूख ने रुप बदल लिया


एक जहान 
जो ॑मैं ॑सा रहा 
कुछ लोग आये थे
जिस्म के कई हिस्सो को
टुकडे-टुकडे में काट गये

घाव जो 
अभी भरे भी नही थे
कि छिल गये
और रूह 
कई हिस्सों में बिखर गई

शाम धुंधली रही
रात अन्धेरी
बर्तन बिल्कुल खाली
भूख ने रुप बदल लिया 
समन्दर बिल्कुल शांत पडा था , कि 
चांद को वे समझाने में लगे 
कि रोटी गोल है

इस तरह कुछ 
सुबहें , भी थकी मिली 
कही हाथ, तो कही पैर
जाने कितनों के घरों में
बिखरा पडा था 'मैं॑॑॑ '!!!

18 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-08-2018) को "आया फिर से रक्षा-बंधन" (चर्चा अंक-3075) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    रक्षाबन्धन की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. हौसलाफ़जाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया !

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  3. आपकी रचना दिल को छू लेने वाली है

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    1. हौसलाफ़जाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया परन्तु दूसरे ही पल बेनामी टिप्पणी अपना महत्व खो देती है :( कRiप्या अगली बार अपना नाम अवश्य बताये !

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    1. हौसलाफ़जाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया !

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    1. हौसलाफ़जाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया !

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  6. मर्मस्पर्शी रचना संध्या जी।
    बहुत सुंदर भाव.और शब्दद बिंड भी सारगर्भित है।

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    1. हौसलाफ़जाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया !

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    1. हौसलाफ़जाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया !

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  8. ह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना :)

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