गांव अपना खोजता रहा
वर्षों
पर लकीरें मिटती रही
वहीं
जहां कोई अपना न था
उम्मीद कोई जंगल है
एक के बाद एक
खत्म होती जाती है
रेत की तरह खुरदरी और
ना टिकती कही
ना कोई सीलन
ना ही नमीं
आंधियों में उडा करती हैं
बस यूं ही
कभी गौरैयों तो
कभी अन्य परिन्दों को
देखकर
जी लेती है जिन्दगी !
जी लेती है जिन्दगी !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-09-2018) को "मँहगाई पर कोई नहीं लगाम" (चर्चा अंक-3088) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sukhriyaa aur aabhaar !
Deletehttps://bulletinofblog.blogspot.com/2018/09/blog-post_7.html
ReplyDeleteshukriyaa aur aabhaar !
ReplyDeletesundar abhivyakti
ReplyDeletebahut bahut shukriyaa !
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