वीरानें में लटकती सांसों को
घुंघरू की तरह प्रतिध्वनित होना था
जिंदगी दो चार कदम पर
गहरी कुआँ थी
वक्त बेवक्त नमी सूखती रही
प्यास प्याउ पर बिखरी
तन्हाई को टटोलती रही
सन्नाटे गहराते रहे
असंख्य यादों से विदा लेते वक्त
आंखों को शुन्य में छोड़ना
विवशता रही सांसों की
आना और जाना
अकेले रास्तों का सफ़र था
फिर भी रिश्तों की जिस्म पर
मोह की क्षणभंगुरता में
सांस-सांस मरते देखना
जीजिविषा प्राण की रही
आत्मगत से वस्तुगत
हो जाना ही सत्य था !!
घुंघरू की तरह प्रतिध्वनित होना था
जिंदगी दो चार कदम पर
गहरी कुआँ थी
वक्त बेवक्त नमी सूखती रही
प्यास प्याउ पर बिखरी
तन्हाई को टटोलती रही
सन्नाटे गहराते रहे
असंख्य यादों से विदा लेते वक्त
आंखों को शुन्य में छोड़ना
विवशता रही सांसों की
आना और जाना
अकेले रास्तों का सफ़र था
फिर भी रिश्तों की जिस्म पर
मोह की क्षणभंगुरता में
सांस-सांस मरते देखना
जीजिविषा प्राण की रही
आत्मगत से वस्तुगत
हो जाना ही सत्य था !!
बढिया,
ReplyDeleteक्या कहने
आत्मगत से वस्तुगत
ReplyDeleteहो जाना ही सत्य था !!
इस जीवन का सबसे बड़ा कड़वा सच ......वाह बेहद खूबसूरत शब्द रचना
विशुद्ध साहित्यिक व दार्शनिक प्रस्तुति...कृष्ण
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