उतरने के लिये बुद्ध होना जरूरी था

त्रिकोण हवा में लहराता रहा
एक सिरे से
मानो कोई पोस्टर हो
जिसपर जिंदगी छपी थी और 
बेबसी टंगी

अट्टालिकाओ के बीच
हवा में परेशानियाँ घुली हुई थी 
दीवारों के बीच जिंदगियाँ चून दी गई थ
मुर्दे चलते थे
और वक्त दो धारी तलवार 
अंदर और बाहर के बीच 
दरवाजे पर लटकता रहा

सड‌क पर लोग गोल गोल चलते थे
झुंड़ से बाहर आना
उनके लिये मुमकीन ना था
किताबों में ऐसा ही लिखा था
और युग यूँ ही बीत गया था

बच्चों को कोलाहल रहस्य लगता
मुठ्ठियों में उत्साह लिये 
वे बड़ा होना चाहते थे
हलांकि जिंदगी
सबसे अलग अलग लिबास में मिलती थी

प्रकाश के ऊपर
ज्ञान की स्याही पोती गई थी
जो जितना ही समझना चाहता
उतना ही उलझता रेशमी घागों के बीच

रस्सियाँ बांध दी गई थी
चलना शेष
और उतरने के लिये
बुद्ध होना जरूरी था !!

3 comments:

  1. बहुत बढ़िया |

    आभार आपका ||

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  2. बेहतरीन लिखा है संध्या जी...

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  3. वाह! बेहतरीन रचना|

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