सफ़ेद ख्वाबों का
वह शहज़ादा था
पर उसने
ख्वाबों को ही कतरन बना दिया
वर्षों रही तबाही
मौत के बेहद करीब रही
पल पल
और भूल गई प्रेम
मायूसियों से भरी शामें
डूबाती रही एहसास
बनते गये सब पत्थर
पर जीवन तो अंधेरे में ही
सांस लेती रही
जहां कोई नही था
तब उसने शब्दों का हाथ पकडा
नींद में करने लगी थी
इकठ्ठा कतरनों को
कि शायद
फ़िर से उन ख्वाबों को
पहनाया जा सके
कोई जिस्म
पहचानी जा सके जीवन !
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