बहरुपिये जिस्म से बचना

होश
चांद पर तैरता पानी
बूंद बूंद गिरता 
कि वक्त बहुत कम हैं

बिदा होने का
वक्त आये
कुछ ऐसे कि
जहां कोई जिस्म नही हो

भौतिकता की जहर
पीते हुये वक्त बेवक्त
उम्मीद से खाली करता 
बेदखल प्रेम से

सिर्फ़ खिलौनें हो
उल्कें नही
जो टूट के विखर जाये 
आंचल तारों से भरे फ़िर 
मां एक बार फ़िर कहें कि
फ़िक्र ना कर
वक्त पर सोया कर और 
पढने के लिये
सुबह का वक्त ही सही है

आंखों में
एक छोटा सा सपना हो
सच्चा
पुरा हो और
किताब हो जाये
बहुरुपिये जिस्म से बचना
धरती को गर्मी से बचाना है


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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