कुछ लोग हैं जो भीड़ की आवाज़ बनने में लगे हैं

कई बार दुनिया  
मेरे दादा जी के बाज़ार जितना सिमटी नज़र आती है 
ऐसा लगता है कि 
उस बाज़ार में सब तरह के लोग है जैसे कि टीवी पर हैं 
दूसरे देशों में हैं जैसा की फ़िल्मों में है आदि आदि 

कुछ लोग हैं जो उस बाज़ार में पहचान बनाने में लगे हैं 
तो कुछ लोग दुकान लगाने में 
तो कुछ लोग पूरे बाज़ार के साथ-साथ  
वहाँ के लोगों को भी, अपने मुठ्ठी में रखने के क़वायद में लगे हुए हैं  
कुछ लोग बुरा को अच्छा 
तो अच्छा को बुरा बनाकर लोगों को उलझाये हुए हैं 
उनका यही शौक़ है शायद  

कुछ लोग बाज़ार के नियम के विरुद्ध भी नियम बनाने में लगे हैं  
उसे लागू भी कर रहे हैं 
क्योंकि पूरे बाज़ार की ताक़त उनके हाथ में जो है 
और वही कुछ लोग मज़लूम भीड़ की आवाज़ बनने में लगे हैं 

कुछ औरतें दहलीज़ से बाहर आकर बाज़ार तक पहुँची तो हैं पर 
अब भी उनको उतना समता का,स्वतंत्रता का तथा 
अन्य कई तरह का अधिकार नहीं मिला है 
जितना की मेरे दादा जी को उस बाज़ार ने दे रखा है 

इसतरह से समय बढ़ता जा रहा है 
जो बच्चे थे वे जवान हो चुके है 
और जो जवान थें वे बूढ़े हो चुके हैं  
कुछ लोग दुनिया से विदा ले रहे है 
यानि की बाज़ार से 
पर परिवर्तन की गति बहुत धीमी है और 
आना जाना गतिशील है 

सब लोग अलग-अलग इरादे से 
अलग-अलग काम करते हुये दिख रहे हैं 
यह भूलकर की एकदिन जाना है उन्हें भी
इस बाजार से और मकान से भी


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