जंगलवाद के वितान पर

कुर्सियों के बीच
जमघट पत्थरों की थी
विस्फोटकतंत्र था शहर 
गाँव उदास जलता रहा
पगडंडियों से
पदचिन्हें विलुप्त होने लगी थी

जंगलवाद के वितान पर
जंगल लुप्त
चीख पुकार से
वे भयभित नही थे
उनका नया शौक था 
शिगार फुकते हुये
नसलो को धुँआ में उडाना

वे आभागे लोग थे
जिनके पास घुमती गोल पृथ्वी नही थी
उनका लौटना किसी सुबह हो सके !!
 

3 comments:

  1. क्या बात है! कई बार पढ़ा... कविता अभी तक पूरी ताः उतरने में नहीं आ रही है.. पर बात कहीं गहरे तक पहुँच रही हैं..

    ReplyDelete
  2. शशक्त भाव ... प्रभावी रचना ...

    ReplyDelete