धुंध के अंदर है
सबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा
टटोलते हुये
खुद को सम्भालते हुये
अनाथ कदमों की
सिसकियाँ नही थमती
अजनबीपन
एहसास से भरा
हर एक सांस
खत्म होती हुई
सुबहें डुबती हुई
सूरज
उगाये थे कभी
हथेलियों पर
बडे आरमान से
प्यास
अंधेरे में चलते हुयें
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!
सबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा
टटोलते हुये
खुद को सम्भालते हुये
अनाथ कदमों की
सिसकियाँ नही थमती
अजनबीपन
एहसास से भरा
हर एक सांस
खत्म होती हुई
सुबहें डुबती हुई
सूरज
उगाये थे कभी
हथेलियों पर
बडे आरमान से
प्यास
अंधेरे में चलते हुयें
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!
धुंध के अंदर है
ReplyDeleteसबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा... गहन अभिवयक्ति.....
सुंदर कविता. बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteअजनबीपन
ReplyDeleteएहसास से भरी
हर एक सांस
खत्म होती हुई
सुंदर अभिव्यक्ति बधाई
उगाये थे कभी
ReplyDeleteहथेलियों पर
बडे आरमान से
प्यास अंधेरे में
चलते हुयें
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!
वाह बहुत सुंदर एवं गहन अभिव्यक्ति....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है.......
बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteGyan Darpan
RajputsParinay
मन के गहन भाव ... अच्छी रचना
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