जो हासिये पर नही जीते

दरअसल वह आसमान की आंख से
विसंगतियों पर पत्थर की तरह चोट करता
ऐसा जब जब करता था यकीन मानो
दोंनों जहाँ धुँआ धुँआ होता था  

उतना ही पढा उसने
जितना उसने सपनों को बुना था
जल में बनें महल की तरह लिखता  
बुलबुले की तरह आसपास बिखरता
छुते ही इंद्रधनुषी होता चमकता सतरंगी 

परिकथाओं से दूर कही
पहाडों की खोह में रहने वाले बच्चों की
दस्तान से भरी गीतों में सुरमई धुन हो
लकीरों से झांकती आंखों की चित्र खिंचता 
जड-जमीन को खोदता और कुछ सूखी जडें निकालता
बढता जाता सात समन्दर  

चाय की दुकानों पर काम करने वाले
छोटूओं के माँ-बाप पैदाईशी ही लुले-लंगडे होते  
उनके घरों में भूख सेंकने के लिये
हाथ पैदा करना होता था काम
और कच्ची उम्र का मेहतना
पेट की आग पर पानी बन बरसता
ऐसे में वह रुई से पानी निचोंडता 
रुखे और सूखे दर्द पर फेरता हाथ कुछ ऐसे कि
गंगा भी हिमालय से फुट पडती
जो आजकल सूखी पडी है कही

संस्कार दुनिया का
तोता बनाना
और भेंड चालवाले पिंजडों में कैद करना 
तोतों को
है ना मुनाफे का सौदा
जो हासियें पर नही जीते
उन्हें पिंजडो का सौदा करना अच्छी तरह आता !!

6 comments:

  1. सुंदर अतिसुन्दर अच्छी लगी, बधाई

    ReplyDelete
  2. संस्कार दुनिया का
    तोता बनाना
    और भेंड चालवाले पिंजडों में कैद करना
    तोतों को
    है ना मुनाफे का सौदा!
    कटु सत्य ...नियमों का आँख मूँद कर अनुसरण रेवड़ की भेड़ों सा हैं , पिंजरे में बंद रहना नियति !

    ReplyDelete
  3. बहुत ही बढियाद।

    ReplyDelete
  4. बढिया रचना।
    गहरे भाव।

    ReplyDelete
  5. बहुत ही प्रभावी .. शशक्त रचना ... घोर त्रासदी को शब्द दिए हैं ...

    ReplyDelete