चाँद को माथे से लगा

परेशानियों को आसमान में
बिखेर के
उनपर रंग भरते हुये
देखा था उसने
हथेलियों पर ले उन्हे
वह उडाती थी मानो गुलाल 
जैसे होली आस-पास के मौसमों पर
छा गई हो
और वह रंग की तरह
पडती थी दु:खो पर

कई जगह से आसमान को
उसनें छुआ था
स्पर्श के रंग बदल गये थे तब तब
मानो आकाशगंगाओ को
शब्दो ने रंग दिया हो
वह कोई चाँद था जिससे हर तारा
रश्क करता दूर होने पर

उसनें सांस को
रस्म की तरह लेना सिखा तब 
वह खुशबू को नही पहचानती थी
इक फुल की तरह 
आज जब दरवाजे से सड़्क गुरजती है
और वह जिंदगी को
दबा पाती है शोर में
तब 
जी भर किताब हो लेती है
बंद अक्षरों की खुशबू में

वह धरती के सीने पर
नन्हा मृग हो बेखौफ कुलाचे भरती 
जिंदगी से भरी
शब्दों के महक से
एक से दूसरे छोर तक जाती
और घण्टों बहती उसके पानी में
कलकल

हमारा लौटना चाहे जहाँ भी हो
पर हम नही लौटते 
किसी सम्प्रदाय की तरह
हम समंदर पर चलते 
सूरज को हथेली पर लेकर डूबते
चाँद को माथे से लगा
तारों को जिस्म पर समेटते
और मर जाते थे एक कविता पूरी होने के बाद

और वे फिर फिर नजर आये 
कही सहराओं के खाक छानते हुये
उन्होने बताया था कि यह दूसरा जन्म है
यहाँ दूर फैला रेगिस्तान है 
और तपिश भी ज्यादा उसके भटकन में !!

4 comments:

  1. bahut sudar bhavavyakti kya bat hai badhai

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  2. वह धरती के सीने पर
    नन्हा मृग हो बेखौफ कुलाचे भरती
    जिंदगी से भरी
    शब्दों के महक से
    एक से दूसरे छोर तक जाती
    और घण्टों बहती उसके पानी में
    कलकल ..........
    Sandhya ji,
    vaise to poori kavita hi bahut prabhavshali hai par ye panktiyan ekdam nai lagin.....alag tarah ki....(comment box se word varification hata den to comment karna asan rahega)
    Hemant

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  3. संध्या
    बहुत देर से आपकी नज्मो पर रुका हुआ हूँ और इस नज़्म में तो जादू सा कर दिया है ... क्या कहूँ .. दिल को छूती हुई सी ये नज़्म बहुत कुछ कह रही है ....बधाई

    आभार
    विजय

    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

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