जिस्म जो पिघल जाता है शीशे में

सच्चाई से परहेज क्यों है
समाजिक आडम्बर जब
शीशे से छनकर बाहर आती है
और आंख दिखाती भी है
तब हम जेहादी हो
मारते खुद को है
समाजिक तिलिस्म पर

हाथी भी मौन में
कई मन एक दिन में खाता है खुराक
ठीक ऐसे ही हम चबाते है
सुबह से शाम तिलिस्म आदर्शो की 
ठीक सोने से पहले तक

मुखौटो पर रंग सबसे ज्यादा
काला ही लगा होता है
फिर फिर पहनते है
और लौटते हो
मानो लौट जायेंगे
सात समंदर
और जिस्म भी बदल देंगे
जैसे बारिश के बाद धूप
इंद्रधनुषी हो 
बदल देता है आसमानी चेहरा

कई हिस्सो से जिस्म कटता
मोम सा विचार भी
खाता रहा हैं जलकर सीने को
पैदा होने से लेकर अंत आने तक
चेहरे कितने तेजी से बदल लेते है
रुप और साज-सज्जा बखुबी
यह  कोई मानविय चाल है

नाटक के प्रथम चरण और अंतिम चरण
शुन्य में दिखता है
मध्यांतर के पहले और उसके बाद
पहले सिखी बातो को
झुठलाता है और आडम्बर में जीते हुये
दोहराव को ओढता है
कुढते हुये शून्य में
सहज पलायन करता है अंत में

दरअसल
पलायन जिस्म का नियम है
पर समाजिक तिलिस्म
मानविय?????

4 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना और भाव

    कई हिस्सो से जिस्म कटता
    मोम सा विचार भी
    खाता रहा हैं जलकर सीने को
    पैदा होने से लेकर अंत आने तक
    चेहरे कितने तेजी से बदल लेते है
    रुप और साज-सज्जा बखुबी
    यह कोई मानविय चाल है

    क्या कहने।
    शुभकामनाएं

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  2. नाटक के प्रथम चरण और अंतिम चरण
    शुन्य में दिखता है
    मध्यांतर के पहले और उसके बाद
    पहले सिखी बातो को
    झुठलाता है और आडम्बर में जीते हुये
    दोहराव को ओढता है
    कुढते हुये शून्य में
    सहज पलायन करता है अंत में

    दरअसल
    पलायन जिस्म का नियम है
    पर समाजिक तिलिस्म
    मानविय?????
    Sandhya ji,
    bahut prabhavshali panktiyan....
    Hemant

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  3. सुन्दर भाव ...अच्छी रचनाएँ ....कुछ नयापन भी ......
    व्याकरण की अशुद्धियाँ दूर कर लें तो और अच्छा लगेगा.
    आपके प्रोफाइल में इ.मेल न होने कारण यह टिप्पणी यहीं करनी पड़ रही है, आशा है अन्यथा नहीं लेंगी....और सुधार अवश्य करेंगी.

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