कुते भौंक रहे है
और वह घर में बैठे
उनके आवाजों के पीछे
दूर तलक भाग रही है
गौरैयाँ भी सुबह होने का आगाज़
मधूर चहक से कर रही है
और कौवें कानों में
खराश पैदा कर रहे है
सभी पंक्षी सूरज के किरणो से
लिपट लिपटकर गा रहें हो
मधूर गान
गारे सीमेंट और चूनें की दीवारों से
आती इनकी आवाज
रुदन सी लग रही है
शहर की हवा भी सख्त है
उंचे मकानों की तरह
एक परिंदा
लोहे की जालियों पर
बैठनें की कोशिश कर रहा है
उसके पंखो की फडफडाहट
अच्छी तरह से सुन पा रही हूँ
जालियों पर उतनी जगह कहाँ
जितनी की पेड के शाखो पर होती है
नींद से जगने की बातों पर
वह हमेशा से बिलखनें लगती है
सलाखो के बीच
नींद पडी हुई है छिली हुई सी
और ख्वाब जख्मी
अथक परिश्रम के बाद
परिंदा
बैठनें में असफल रहा
पैरो और परों को
घायल कर लिया है उसने
टी.वी पर कुछ लोग
चिल्ला रहे हैं
वे दवा बनाना चाहते हैं
घुटनों के लिये
घर में बैंठे सभी लोग हाथ उठा रहे है
समर्थन में
छुटकी चिल्ला रही है
माँ नही सुनती रसोई में
माथा पोंछती है और
पतीले में कुछ पकाती है दिनभर
थक जाती तो याद करती है बचपन
और उसे कलेजे से लगाती है
रोज सुबह ऐसे ही
पंक्षियों की आवाज आती है
कुछ पंख घायल होते है
जाली पर बैठने की चाहत में
जाली के अंदर से
छुटकी तिरंगा दिखाती है
और खिलखिलाती भी
माँ की आंखे डबडबा आई है
उसके गालों को थपथपाती है
आंखो में भर लेती है
बहुत सारा प्यार !!
और वह घर में बैठे
उनके आवाजों के पीछे
दूर तलक भाग रही है
गौरैयाँ भी सुबह होने का आगाज़
मधूर चहक से कर रही है
और कौवें कानों में
खराश पैदा कर रहे है
सभी पंक्षी सूरज के किरणो से
लिपट लिपटकर गा रहें हो
मधूर गान
गारे सीमेंट और चूनें की दीवारों से
आती इनकी आवाज
रुदन सी लग रही है
शहर की हवा भी सख्त है
उंचे मकानों की तरह
एक परिंदा
लोहे की जालियों पर
बैठनें की कोशिश कर रहा है
उसके पंखो की फडफडाहट
अच्छी तरह से सुन पा रही हूँ
जालियों पर उतनी जगह कहाँ
जितनी की पेड के शाखो पर होती है
नींद से जगने की बातों पर
वह हमेशा से बिलखनें लगती है
सलाखो के बीच
नींद पडी हुई है छिली हुई सी
और ख्वाब जख्मी
अथक परिश्रम के बाद
परिंदा
बैठनें में असफल रहा
पैरो और परों को
घायल कर लिया है उसने
टी.वी पर कुछ लोग
चिल्ला रहे हैं
वे दवा बनाना चाहते हैं
घुटनों के लिये
घर में बैंठे सभी लोग हाथ उठा रहे है
समर्थन में
छुटकी चिल्ला रही है
माँ नही सुनती रसोई में
माथा पोंछती है और
पतीले में कुछ पकाती है दिनभर
थक जाती तो याद करती है बचपन
और उसे कलेजे से लगाती है
रोज सुबह ऐसे ही
पंक्षियों की आवाज आती है
कुछ पंख घायल होते है
जाली पर बैठने की चाहत में
जाली के अंदर से
छुटकी तिरंगा दिखाती है
और खिलखिलाती भी
माँ की आंखे डबडबा आई है
उसके गालों को थपथपाती है
आंखो में भर लेती है
बहुत सारा प्यार !!
sundar abhivaykti....
ReplyDeleteगहरे भावों को समेटे हुये गहन सोच का अनुसरण करती हुई सुंदर अभिवक्ती.... आपका भी स्वागत है, मेरे ब्लॉग पर कभी समय मिले तो आयेगा जरूर http://mhare-anubhav.blogspot.com/
ReplyDeleteजालियों पर उतनी जगह कहाँ
ReplyDeleteजितनी की पेड के शाखो पर होती है
इन्ही पंक्तियों में सार है बहुत सुंदर सारगर्भित रचना.........
बेहतरीन।
ReplyDeleteसादर
गहन भावो का समावेश्।
ReplyDeleteबहुत गहरी अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसंध्या जी,
ReplyDeleteनमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगसपाट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
Vaneet Nagpal ji
ReplyDeletenamskar
ji bahut bahut shukriya aur aabhar .