उम्र की सांझ ढल गई
तमाम रास्ते
चाक जिगर से
गाँव से दूर
नदी के किनारे
एक बुढिया कात रही है सुत
गुजरे वक्त के
मौसमों ने
खुब कहर ढायें हैं
जल गयीं हैं जमीन और
आसमान के कई परतें
छांव कही खो गया है
और
वह कात रही है सुत
बेशुमार शोर के बीच
अश्क रिश्तों के बह चले है
और डुबने को है
लाज दहलीजों की
औंर
वह कात रही है सुत
अंधेरे में
जरुरतें दम तोड रही हैं
भूख और प्यास से
बिलख रहें हैं बच्चें नवजात
दीपक की बात्ति
कही खो गई हैं
औंर
वह कात रही है सुत
माँ के आइने में
जाने और पहचाने
अक्स धुंधलाने लगे है
कभी हाँथो को
तो कभी आंखो को छूती है
झुर्रियों में वक्त का स्पर्श
अभी भी करवटें ले रहा है
और
वह कात रही है सुत!!!
तमाम रास्ते
चाक जिगर से
गाँव से दूर
नदी के किनारे
एक बुढिया कात रही है सुत
गुजरे वक्त के
मौसमों ने
खुब कहर ढायें हैं
जल गयीं हैं जमीन और
आसमान के कई परतें
छांव कही खो गया है
और
वह कात रही है सुत
बेशुमार शोर के बीच
अश्क रिश्तों के बह चले है
और डुबने को है
लाज दहलीजों की
औंर
वह कात रही है सुत
अंधेरे में
जरुरतें दम तोड रही हैं
भूख और प्यास से
बिलख रहें हैं बच्चें नवजात
दीपक की बात्ति
कही खो गई हैं
औंर
वह कात रही है सुत
माँ के आइने में
जाने और पहचाने
अक्स धुंधलाने लगे है
कभी हाँथो को
तो कभी आंखो को छूती है
झुर्रियों में वक्त का स्पर्श
अभी भी करवटें ले रहा है
और
वह कात रही है सुत!!!
माँ के आइने में
ReplyDeleteजाने और पहचाने
अक्स धुंधलाने लगे है
कभी हाँथो को
तो कभी आंखो को छूती
झुर्रियों में वक्त का स्पर्श
अभी भी करवटें ले रहा है
और
वह कात रही है सुत!!!
एक अबोध के मन का दर्द इन पंक्तियों में बखूबी अभिव्यक्त हुआ है ....काश हम उस दर्द को समझ पाते ....आपका आभार
वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/
वह कात रही है सूत
ReplyDeleteसच में बहुत सुंदर रचना है।
शुभकामनाएं
बहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर
behtreen rachna....
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