रेत उंगलियो से
वक्त की तरह फिसल गया
एहसास बंधे रह गये थे
मुठ्ठियो मे
भूख उंगलियों से रिसने लगा था
तब मन बेबस
आनाथ पडा रह गया था कही
शहर अजनबी और सौ धोखे
फूल कांटो के बीच भी
खुशबू का साथ नही छोडा कभी
इंसानी फितरत में
गुलाब कहा था गेंहू के पीछे
उंगलियाँ कटती रही
वक्त की पटरियो पर
उगाई थी उसने हरी दूबे
रस्मो से बंधी जमीन
सूखाग्रस्त और बंजर मिला था
जगह जगह से
हिरने कस्तुरी के लिये नही बल्कि
दूब के लिये तडपती थी उन दिनों
राते बैठी रहती थी
मुंडेर पर बैठे काग की तरह
सितारे सजे तो उजाले हो
और सुबह के शबनमी गोद में
कदम थिरके और चमन महके
वक्त के नाखुन बडे हो गये थे
खराश जिस्म पर
भूख से बढने लगी थी
सौ मन प्यार भी
कचरे के हिसाब में था
जिसमे सडता रहा मासूमियत
तुम्हें नही पता कि
दहलीज और दीवार के बीच
जो कुछ अनसूना और अनकहा है
बस मासूमियत है
जिनकी सौ कुर्बानियाँ होती है
बेमतलब
कटती गायें ही है बस
इनके बीच
होश भी नींद का दामन थाम ले
पर जिंदगी मय्यसर ना होगी
क्योकि ख्वाब की खेती पर
अफीम उगता है
जीते वही है माँ
जो धनवान है !!
वक्त की तरह फिसल गया
एहसास बंधे रह गये थे
मुठ्ठियो मे
भूख उंगलियों से रिसने लगा था
तब मन बेबस
आनाथ पडा रह गया था कही
शहर अजनबी और सौ धोखे
फूल कांटो के बीच भी
खुशबू का साथ नही छोडा कभी
इंसानी फितरत में
गुलाब कहा था गेंहू के पीछे
उंगलियाँ कटती रही
वक्त की पटरियो पर
उगाई थी उसने हरी दूबे
रस्मो से बंधी जमीन
सूखाग्रस्त और बंजर मिला था
जगह जगह से
हिरने कस्तुरी के लिये नही बल्कि
दूब के लिये तडपती थी उन दिनों
राते बैठी रहती थी
मुंडेर पर बैठे काग की तरह
सितारे सजे तो उजाले हो
और सुबह के शबनमी गोद में
कदम थिरके और चमन महके
वक्त के नाखुन बडे हो गये थे
खराश जिस्म पर
भूख से बढने लगी थी
सौ मन प्यार भी
कचरे के हिसाब में था
जिसमे सडता रहा मासूमियत
तुम्हें नही पता कि
दहलीज और दीवार के बीच
जो कुछ अनसूना और अनकहा है
बस मासूमियत है
जिनकी सौ कुर्बानियाँ होती है
बेमतलब
कटती गायें ही है बस
इनके बीच
होश भी नींद का दामन थाम ले
पर जिंदगी मय्यसर ना होगी
क्योकि ख्वाब की खेती पर
अफीम उगता है
जीते वही है माँ
जो धनवान है !!
बेहतरीन अभिवयक्ति....
ReplyDeleteगहरी संवेदनाओं से रची ये रचना ...!
ReplyDeleteधीरे - धीरे पढ़ा और दिल में उतारते गया ...!
बहुत खूब कहा है आपने ...।
ReplyDeleteकल 28/12/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है, कौन कब आता है और कब जाता है ...
धन्यवाद!
तुम्हें नही पता कि
ReplyDeleteदहलीज और दीवार के बीच
जो कुछ अनसूना और अनकहा है
बस मासूमियत है
जिनकी सौ कुर्बानियाँ होती है
बेमतलब
Bahut sundar...karara vyang v satya
www..poeticprakash.com
उगाई थी उसने हरी दूबे
ReplyDeleteरस्मो से बंधी जमीन
सूखाग्रस्त और बंजर मिला था
जगह जगह से
हिरने कस्तुरी के लिये नही बल्कि
दूब के लिये तडपती थी उन दिनों ... kya kahne hain
बहुत ्खूबसूरत रचना ,बेहद प्रभावित करने वाली । आने वाले वर्ष के बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको
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