चल कही और चले

गमों से पार चले
ए हवा
चल कही और चले

उल्झी सांसो की
गुंथियों की जाल से
पार चले
ए हवा
चल कही और चले

बंजर भुमि की कोख में
लगी आग से
कही पार चले
ए हवा
चल कही और चले

निकल चली है
कई रस्मो-रवायते ऐसी की
शुल जिगर के पार चले
ए हवा
चल कही और चले 

मुद्दतो से वे छींटते रहे है 
बारुद यहाँ वहाँ
फटने से पार चले
ए हवा
चल  कही और चले

हमने भी इक बनाई है
रौशन चमन जहाँ में
ए हवा
चल उसी के आस-पास चले !!

7 comments:

  1. हमें स्वयं बनानी है वह रौशन दुनिया...
    पावन भाव!

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  2. सुंदर भावों का सयोजन बहुत ही सुन्दर कविता पढ़कर आनन्द आ गया. आभार.

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  3. ए मेरे दिल कहीं और चल ग़म की दुनिया से दिल भर गया.... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://aapki-pasand.blogspot.com/2011/12/blog-post_13.html

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  4. बेहतरीन अभिव्यक्ति.....

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  5. सुन्दर भावों को लिए बढ़िया अभिव्यक्ति

    Gyan Darpan
    .

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